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रुद्दाओ कम्मिंधणाण'
हणं
सो
झाय
अप्पयं
सुद्धं
28.
मयमायकोहरहिओ
लोहेण
विवज्जिओ
य
जो
जीवो
म्मिलसहावत्त
सो
पावइ
उत्तमं
सोक्खं
29.
तवरहियं
जं
15
णाणं
1.
2.
3.
210
( रुद्द) 5 / 1 वि
[(कम्म) + (इंधणाण)] [ ( कम्म ) - (इंधण) 6/2]
(डहण) 2 / 1 वि
(त) 1 / 1 सवि
(झा) व 3 / 1 सक
( अप्पय ) 2 / 1
(सुद्ध) 2 / 1 वि
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[(मय) - (माय) - (कोह) - (रहिअ) 3 1/1 fa]
(लोह) 3/1
( विवज्जिअ ) 1 / 1 वि
अव्यय
(ज) 1 / 1 सवि
(जीव ) 1 / 1
[(णिम्मल) - (सहाव) - (जुत्त) 1 / 1 वि]
(त) 1 / 1 सवि
(पाव) व 3 / 1 सक
(उत्तम) 2 / 1 वि
(सोक्ख) 2 / 1
[ ( तव ) - ( रहिय) 1 / 1 वि]
अव्यय
( णाण) 1 / 1
भीषण (से)
कर्मरूपी ईंधन को
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जलानेवाली
वह
ध्यान करता है।
आत्मा का ( को )
शुद्ध का ( को )
अहंकार, कपट, क्रोध
से रहित
लोभ से
रहित
तथा
जो
जीव
निर्मल स्वभाव से युक्त
वह
पाता है
उत्तम
सुख को
तपरहित
चूँकि
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त अन्य स्वरान्त धातुओं में विकल्प से 'अ' (य) जोड़ने के पश्चात् प्रत्यय जोड़ा जाता है।
कारण के साथ या समास के अन्त में इसका अर्थ होता है, मुक्त, वंचित, रहित ।
ज्ञान
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
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