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वयणमेयं
पव्वज्जानिच्छियं
नरवरिन्द
सुहडाऽमच्च- पुरोहिय'
पडिया
सोयण्णवे
सहसा
10.
नाऊण
निच्छियमई
दिखाभमुहं
नराहिवं
एत्तो
अन्तेउरजुवइजणो
सव्वो
रुविडं
समादत्तो
11.
दहूण
तारिसं
चिय
पियरं
भरहो
1.
2.
236
[(वयणं)+(एयं)] वयणं ( वयण) 2 / 1 एयं (ए) 2 / 1 सवि
[[ (पव्वज्जा) - (निच्छिय) 2 / 1 ] वि]
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( नरवरिन्द ) 2 / 1
[(सुहड) + (अमच्च) - ( पुरोहिय)] [ ( सुहड) - ( अमच्च) - ( पुरोहिय) 1 / 2 ]
(पड) भूकृ 1/2
[(सोय) + (अण्णवे ) ] [ ( सोय) - ( अण्णव) 7 / 1]
अव्यय
(ना) संकृ
(निच्छियमइ ) 2 2 / 1 वि
[(दिक्खा) - (अभिमुह) 2 / 1 वि]
( नराहिव ) 2 / 1
अव्यय
[ ( अन्तेउर) - ( जुवइ ) - ( जण) 1 / 1 ]
(सव्व) 1 / 1 सवि
(रुव) हेकृ
( समाढत्त) 1 / 1 वि
(दट्ठूण) संकृ अनि
(तारिस) 2 / 1 वि
अव्यय
(पियर) 2 / 1
( भरह ) 1 / 1
वचन को, ऐसे
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प्रव्रज्या लेने के लिए दृढ़ निश्चयवाले
राजा को
सुभट, अमात्य व पुरोहित
गिरे
शोकरूपी समुद्र
अचानक
जानकर
दृढ़ति
दीक्षा की ओर अभिमुख
राजा को
इस कारण से
अन्तःपुर की स्त्रियाँ व लोग सभी
रोने के लिए उत्तेजित हुए
कभी-कभी किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लिया जा सकता है। पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517
मूल पाठ में शब्द 'निच्छियमई' है । किन्तु व्याकरण के नियमानुसार दिक्खाभिमुहं के अनुसार यहाँ 'निच्छियमई' शब्द उपयुक्त लगता है।
देखकर
उस प्रकार
ही
पिता को
भरत
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
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