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20. हे मनुष्य! जब तक (तुझे) वृद्ध (अवस्था) नहीं पकड़ती है, जब तक
रोगरूपी अग्नि देहरूपी कुटिया को नहीं जलाती है, (जब तक) इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं होती है, तब तक तू, आत्महित कर ले।
21. जो मूर्छा, अभिमान और लालसा से मुक्त (है), तथा करुणाभाव से
संयुक्त (हैं), वे चारित्ररूपी तलवार से पूर्ण पापरूपी खम्भे को नष्ट कर देते हैं।
22.
निश्चय ही (भिन्न-भिन्न) कारणों से वह आत्मा तीन प्रकार का हैपरम (आत्मा), आन्तरिक (आत्मा) और बहिर (आत्मा)। (तुम) बहिरात्मा को छोड़ो, (चूँकि) उस (परम) अवस्था में आन्तरिक (आत्मा) के साधन से परम (आत्मा) ध्याया जाता है।
23. (शरीररूपी) इन्द्रियाँ (ही) बहिरात्मा (है)। (शरीर से भिन्न) आत्मा
का विचार ही अन्तरात्मा (है), (तथा) कर्म-कलंक (तनाव) से मुक्त (जीव) परम-आत्मा देव (है)। (इस प्रकार यह) कहा जाता है।
24.
तीन प्रकार (मन-वचन-काय) से बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा को ग्रहण कर परम आत्मा ध्याया जाता है। (यह) अरहन्तों द्वारा कथित (है)।
25.
इन्द्रियों के माध्यम से बाह्य पदार्थ में (जिसका) मन लगा हुआ है, (उसके द्वारा) (निश्चय ही) निज स्वरूप भूला हुआ (है)। (इस तरह से) खेद! मूढदृष्टि वाला (व्यक्ति) निज देह (और) आत्मा को (एक) विचारता है।
26.
जो देह से उदासीन है, (जो) (मानसिक) द्वन्द्व-रहित (है), ममतारहित (तथा) जीव-हिंसारहित (है), (जो) आत्म-स्वभाव में पूरी तरह संलग्न है, वह योगी परम शान्ति प्राप्त करता है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
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