________________
13.
हे पथिक! (तुम) सर्वप्रथम भाव को समझो। भावरहित देश से तुम्हारे लिए क्या (लाभ)? (इस प्रकार) जितेन्द्रियों द्वारा शिवपुरी का मार्ग (परमशान्ति का मार्ग) सावधानीपूर्वक प्रतिपादित (है)।
14. जो जीव आत्म-स्वभाव का चिन्तन करता हुआ श्रेष्ठ भावों से युक्त
(होता है) वह बुढ़ापा और मृत्यु का नाश करता है (और) निश्चय ही परम शान्ति को प्राप्त करता है।
15.
आत्मा रस रहित, रूप रहित, गन्ध रहित, शब्द रहित तथा अदृश्यमान (है), (उसका) स्वभाव चेतना तथा ज्ञान (है), (उसका) ग्रहण बिना किसी चिह्न के (केवल अनुभव से) (होता है) (और) (उसका) आकार अप्रतिपादित (है)।
16. (हे मनुष्य)! भाव-रहित सुना हुआ होने से क्या (लाभ) प्राप्त किया
जाता है, अथवा (भाव-रहित) पढ़े जाने से भी क्या (लाभ) (प्राप्त किया जाता है)। भाव (ही) गृहस्थ (एवं) साधु होने वालों का आधार बना हुआ है।
17.
भाव-रहित (व्यक्तियों) के लिए बाह्य परिग्रह का त्याग, पर्वत, नदी, गुफा और घाटी में रहना तथा सकल ध्यान और अध्ययन (ये सब) निरर्थक (है)।
18.
इन्द्रियरूपी सेना को छिन्न-भिन्न करो, मनरूपी बन्दर को प्रयत्नपूर्वक रोको, (तथा) जन-समुदाय को खुश करने के साधन, (केवल) बाह्य व्रतरूपी वेश को तुम धारण मत करो।
19. जिस प्रकार दीपक घर के भीतर के कमरे में हवा की बाधा से
रहित जलता है, उसी प्रकार रागरूपी हवा से रहित ध्यानरूपी दीपक भी जलता है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org