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उसी समय उसके द्वारा (स्त्री के द्वारा) निज घर के भीतर से अमृत रस के घड़े को लाकर अग्नि में छिड़काव किया गया। बालक हँसता हुआ निकला। माता के द्वारा गोद में लिया गया।
4. तब उस वर ने सोचा, “अहो आश्चर्य! अहो आश्चर्य! इस प्रकार अग्नि से जला हुआ भी जिया। यदि यह अमृतरस मेरे लिए होता है तो मैं भी उस कन्या को जिलाऊँगा। इस प्रकार सोचकर धूर्तता से कपट वेश धारण करके रात्रि में वहाँ ही ठहरा। अवसर पाकर उस अमृत रस के घड़े को लेकर, हस्तिनापुर आ गया।
5. उसके द्वारा फिर उसके पिता आदि के समक्ष चिता के मध्य में अमृत रस छोड़ा गया। वह सुमति कन्या अलंकारसहित जीती हुई उठी। तब उसके साथ एक वर भी जिया। कर्म के वश से फिर चारों ही वर एक-एक करके मिल गए। कन्या से विवाह करने के लिए आपस में विवाद करते हुए बालचन्द राजा के मन्दिर में गए। चारों के द्वारा ही राजा के लिए अपनी-अपनी बात कही गई। राजा के द्वारा मंत्री कहे गए- बड़े निश्चय से इनके विवाद को समाप्त करके एक वर प्रमाणित किया जाना चाहिए। सब मंत्रियों ने भी आपस में विचार किया। किसी के द्वारा भी विवाद नहीं सुलझा। क्योंकि समीपस्थ युद्ध में, कर्त्तव्य की सूझ से हीन व्यक्ति में, परामर्श में, उसी प्रकार अकाल में जिसका मुँह देखा जाता है वह पुरुष पृथ्वी पर दुर्लभ (होता है)।
6. तब एक मंत्री के द्वारा कहा गया- “यदि (तुम लोग) मानोगे तब विवाद हल कर दूँगा।" उनके द्वारा कहा गया "जो राजहंस के समान गुण-दोष की परीक्षा करके पक्षपात रहित.(होकर) विवाद को सुलझाता है उसकी बात को कौन नहीं मानेगा।" तब उसके द्वारा कहा गया- “जिसके द्वारा जिलाया गया,
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
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