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7. जिसके लिए स्थिर मति धनुष ( है ), श्रुत (ज्ञान) डोरी ( है ), तीन रत्नों का समूह श्रेष्ठ बाण ( है ) (तथा) परमार्थ ( की प्राप्ति) का लक्ष्य दृढ़ (है), (वह) कभी मोक्ष के मार्ग ( समता के मार्ग ) से विचलित नहीं होता है ।
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धर्म ( चारित्र ) ( वह है ) ( जो ) दया ( सहानुभूति के भाव ) से शुद्ध किया हुआ ( है ), संन्यास ( वह है ) ( जो ) समस्त आसक्ति से रहित ( होता है ), देव ( वह है ) ( जिसके द्वारा) मूर्च्छा नष्ट की गई (है), (और) (जो) भव्य-जीवों (समता - भाव की प्राप्ति के इच्छुक व्यक्तियों) का उत्थान करनेवाला होता है।
ऐसा कहा गया है ( कि) निश्चय ही संन्यास (संन्यासी का जीवन ) शत्रु और मित्र में समान ( होता है), प्रशंसा और निन्दा में लाभ और अलाभ में (भी) समान (होता है ) ( तथा ) ( उसके जीवन में) तृण और सुवर्ण में समभाव (होता है ) ।
ऐसा कहा गया है ( कि) संन्यास ( संन्यासी का जीवन ) उत्तम और मध्यम गृह में गरीबी (लिए हुए व्यक्ति) में तथा अमीर (व्यक्ति) में निरपेक्ष (होता है ) ( तथा ) ( उस जीवन में ) ( संन्यासी के द्वारा ) प्रत्येक स्थान में (निरपेक्ष भाव से) आहार स्वीकृत ( होता है ) ।
(यह) (तुम) जानो ( कि) भाव निस्सन्देह प्रधान वेश (होता है), किन्तु (केवल) बाह्य वेश सच्चाई नहीं है। जितेन्द्रिय व्यक्ति कहते हैं ( कि) भाव ( ही ) गुण-दोषों का कारण ( सदैव ) हुआ ( है ) ।
भाव-शुद्धि के हेतु बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है, आन्तरिक परिग्रह (मूर्च्छा) से युक्त (व्यक्ति) का बाह्य त्याग निरर्थक है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
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