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46.
जो बड़ी विपत्ति से अति पीड़ित भी दूसरे से याचना नहीं करते हैं, वे आत्म-सम्मानी (हैं) तथा स्थिर-प्रयत्न (प्रयत्नों में स्थिर) (हैं)। (अत:) वे धन्य हैं (और) महान (हैं), उनके लिए नमस्कार।
47. प्रज्ञावान का मन (जीवन की) अन्तिम दशाओं में भी ऊँचा ही होता
है। (ठीक ही है) अस्त होते हुए सूर्य की किरणें भी ऊपर की ओर ही प्रकट होती हैं।
48.
तब तक (ही) मेरु-पर्वत ऊँचा (होता है), तब तक (ही) समुद्र दुर्लंघ्य होता है, तब तक ही कार्यों में गति कठिन (होती है), जब तक धीर (उनको) स्वीकार नहीं करते हैं।
49. तब तक (ही) आकाश विस्तीर्ण (लगता है), तब तक ही समुद्र अति
गहरे (मालूम होते हैं), तब तक (ही) मुख्य पहाड़ महान (दिखाई देते हैं) जब तक धीरों से (उनकी) तुलना नहीं की जाती है।
50. साहसी पुरुषों के लिए मेरु जैसे कि तृण (हैं), स्वर्ग (जैसे कि) घर
का आँगन (है), गगन-तल (जैसे कि) हाथ से छुआ हुआ है (और) समुद्र जैसे कि क्षुद्र नदियाँ हैं।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
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