Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् विशेष: पाणिनि ने तीस अध्यायों के ब्राह्मण-ग्रन्थ को बैंश और चालीस अध्यायवाले ब्राह्मण-ग्रन्थ को चात्वारिंश कहा है। कोषीतकी ब्राह्मण में ३० और ऐतरेय ब्राह्मण में ४० अध्याय हैं। पाणिनि का तात्पर्य इन दोनों (ब्राह्मण-ग्रन्थों) से था (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० ३२२)।
अर्हति-अर्थप्रत्ययप्रकरणम् यथाविहितं प्रत्ययः
(१) तदर्हति।६२। प०वि०-तत् २१ अर्हति क्रियापदम्। अन्वय:-तत् प्रातिपदिकाद् अर्हति यथाविहितं प्रत्ययः।
अर्थ:-तद् इति द्वितीयासमर्थात् प्रातिपदिकाद् अर्हतीत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति।
उदा०- श्वेतच्छत्रमर्हति-श्वैतच्छत्रिकः। वस्त्रयुग्ममर्हतिवास्त्रयुग्मिक: । शत्यः । शतिक: । साहस्रः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) प्रथमा-समर्थ प्रातिपदिक से (अर्हति) 'कर सकता है' अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है।
उदा०-श्वेतच्छत्र को जो धारण कर सकता है वह-श्वैतच्छत्रिक । वस्त्रयुग्म (वस्त्र का जोड़ा-धोती, कुर्ता) को जो धारण कर सकता है वह-वास्त्रयुग्मिक । शत कार्षापण जो प्राप्त कर सकता है वह-शत्य/शतिक। सहस्र कार्षापण जो प्राप्त कर सकता है वहसाहस्र।
सिद्धि-(१) श्वैतच्छत्रिक: । श्वेतच्छत्र+अम्+ठक् । श्वेतच्छन्+इक । श्वैतच्छत्रिक।
यहां द्वितीया-समर्थ श्वेतच्छत्र' शब्द से अर्हति अर्थ में 'आदिगोपुच्छ्' (५।१।१९) से यथाविहित ठक्’ प्रत्यय है। पूर्ववत् ट्' के स्थान में 'इक्’ आदेश और अंग को आदिवृद्धि होती है। ऐसे ही वस्त्रयुग्म' शब्द से-वास्त्रयुग्मिकः ।
(२) शत्यः शतिकः । यहां द्वितीया-समर्थ 'शत' शब्द से अर्हति-अर्थ में 'शताच्च ठन्यतावशते' (५ ।१।२१) से यथाविहित यत्' और ठन्' प्रत्यय हैं।
(३) साहस्रः। यहां द्वितीया-समर्थ सहस्र' शब्द से अर्हति-अर्थ में 'शतमानविंशति सहस्रवसनादण्' (५।१।२८) से यथाविहित 'अण्' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है।
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