Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
View full book text
________________
४१४
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-राजा के अधीन करता है-राजसात् करता है, राजसात् होता है, राजसात् होवे, राजसात् बनता है। आचार्य के अधीन करता है-आचार्यसात् करता है, आचार्यसात् होता है, आचार्यसात् होवे, आचार्यसात् बनता है।
सिद्धि-राजसात् । राजन्+डस्+साति । राजन्+सात् । राज०+सात् । राजसात्+सु। राजसात्+० । राजसात्।
यहां कृ, भू, अस्ति और सम्पद के योग में स्वामिविशेषवाची 'राजन्' शब्द से तदधीन के कथन अर्थ में इस सूत्र से साति' प्रत्यय है। साति' प्रत्यय के परे होने पर स्वादिष्वसर्वनामस्थाने (१।४।१७) से राजन्' शब्द की पद-संज्ञा होकर नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य' (८२/३७) से राजन् पद के नकार का लोप होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही-आचार्यसात् ।
त्रा:+साति:
__(२) देये त्रा चा५५। प०वि०-देये ७१ त्रा १।१ (सु-लुक्) च अव्ययपदम् । अनु०-कृभ्वस्तियोगे साति:, सम्पदा च इति चानुवर्तते।
अन्वय:-कृभ्वस्तिभिः सम्पदा च योगे स्वामिविशेषवाचिनस्तदधीने देये वचने त्रा: सातिश्च।
अर्थ:-कभ्वस्तिभि: सम्पदा च योगे स्वामिविशेषवाचिन: प्रातिपदिकात् तदधीने देयवचनेऽर्थे त्रा: सातिश्च प्रत्ययो भवति।
इदमाचार्येभ्यो देयमिति यत् प्रतिज्ञातम्, तद् यदा तेभ्य: प्रदानेन तदधीनं क्रियते तदा त्रा: सातिश्च प्रत्ययो भवति।
उदाo-आचार्याधीनं देयं करोति-आचार्यत्रा करोति, आचार्यत्रा भवति, आचार्यत्रा स्यात्, आचार्यत्रा सम्पद्यते (त्रा:) । आचार्यसात् करोति, आचार्यसाद् भवति, आचार्यसात् स्यात्, आचार्यसात् सम्पद्यते (साति:)।
आर्यभाषा: अर्थ-(कृभ्वस्तियोगे) कृ, भू, अस्ति (च) और (सम्पदा) सम्पद के योग में स्वामिविशेषवाची प्रातिपदिक से (तदधीनवचने देये) उस स्वामिविशेष के अधीन देय द्रव्य के कथन अर्थ में (त्रा:) वा (च) और (साति:) साति. प्रत्यय होते हैं।
यह आचार्य जी को देना है इस प्रकार से जो प्रतिज्ञात शाल आदि द्रव्य है जब वह उन्हें समर्पित करके उनके अधीन किया जाता है तब यह त्रा और साति प्रत्यय होते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org