Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
५०७ आर्यभाषा: अर्थ-(बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास में (नाडीतन्त्र्यो:) नाडी और तन्त्री शब्द जिसके अन्त में हैं उस प्रातिपदिक से (समासान्त:) समास का अवयव (कप्) कप् प्रत्यय (न) नहीं होता है।
उदा०-(नाडी) बही बहुत हैं नाडियां जिसमें वह-बहुनाडि काय (शरीर)। बही बहुत हैं तन्त्रियां धमनियां जिसमें वह-बहुतन्त्री ग्रीवा (गर्दन)।
सिद्धि-(१) बहुनाडिः । यहां बहु और नाडी शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है। स्वाङ्गवाची 'बहुनाडी' शब्द से इस सूत्र से समासान्त कप्' प्रत्यय का प्रतिषेध है। 'नद्यतश्च' (५।४।१५३) से कप प्राप्त था। गोस्त्रियोरुपसर्जनस्य (१।२।४८) से नाडी शब्द को ह्रस्व होता है।
(२) बहुतन्त्री: । यहां बहुतन्त्री' शब्द में 'गोस्त्रियोरुपसर्जनस्य' (१।२।४८). से प्राप्त हस्वत्व का वा०-कृत: स्त्रिया: प्रतिषेधो वक्तव्यः' (१।२।४८) से प्रतिषेध होता है। कप-प्रतिषेधः
(४८) निष्प्रवाणिश्च ।१६० । प०वि०-निष्प्रवाणि: ११ च अव्ययपदम् । अनु०-समासान्ता:, बहुव्रीहौ, कप् न इति चानुवर्तते । अन्वय:-बहुव्रीहौ निष्प्रवाणिश्च समासान्त: कप् न।
अर्थ:-बहुव्रीहौ समासे 'निष्प्रवाणिः' इत्यत्र च समासान्त: कप् प्रत्ययो न भवति।
प्रोयते यस्यां सा-प्रवाणी। प्रवयन्ति यया सा वा-प्रवाणी। ‘करणाधिकरणयोश्च' (३।३।११७) इत्यनेन करणे कारके ल्युट् प्रत्यय: । तन्तुवायस्य शलाका प्रवाणीति कथ्यते।
उदा०-निर्गता प्रवाणी यस्य स:-निष्प्रवाणि: पट:। निष्प्रवाणी कम्बल: । अपनीतशलाक: समाप्तवान: प्रत्यग्रो नवक: पट: 'प्रवाणि:' इत्युच्यते।
आर्यभाषा: अर्थ- (बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास में (निष्प्रवाणि ) 'निष्प्रवाणि' इस पद में (समासान्त:) समास का अवयव (कप्) कप् प्रत्यय (न) नहीं होता है।
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