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पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
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अर्थ:-बहुव्रीहौ समासे ऊर्ध्व-शब्दात् परस्य जानु - शब्दस्य स्थाने
विकल्पेन समासान्तो जुरादेशो भवति ।
उदा०-ऊर्ध्वे जानुनी यस्य सः - ऊर्ध्वज्ञुः । ऊर्ध्वजानुः ।
आर्यभाषा: अर्थ - (बहुवीही) बहुव्रीहि समास में (ऊर्ध्वात्) ऊर्ध्व शब्द से परे (जानुनोः) जानु शब्द के स्थान में (विभाषा) विकल्प से (समासान्तः) समास का अवयव (जुः) ज्ञु आदेश होता है ।
उदा० - ऊर्ध्व= ऊंचे हैं जानु = घुटने जिसके वह - ऊर्ध्वज्ञु, ऊर्ध्वजानु ।
सिद्धि-(१) ऊर्ध्वज्ञैः । यहां ऊर्ध्व और जानु शब्द का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है । 'ऊर्ध्वजानु' शब्द के जानु शब्द के स्थान में इस सूत्र से 'झु' आदेश है।
(२) ऊर्ध्वजानुः | यहां विकल्प पक्ष में 'ऊर्ध्वजानु' शब्द के जानु शब्द के स्थान '' आदेश नहीं है।
अनङ्-आदेशः
(१६) ऊधसोऽनङ् ।१३१।
प०वि० - ऊधसः ६ ।१ अनङ् १।१ । अनु०-समासान्ता:, बहुव्रीहौ इति चानुवर्तते । अन्वयः - बहुव्रीहौ ऊधसः समासान्तो ऽनङ् ।
अर्थ :- बहुव्रीहौ समासे ऊधः शब्दान्तस्य प्रातिपदिकस्य स्थाने समासान्तोऽनङ् आदेशो भवति ।
उदा० - कुण्डमिव ऊधो यस्याः सा - कुण्डोनी गौः । घटोनी गौः ।
आर्यभाषाः अर्थ- (बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास में (ऊधसः) ऊधस् शब्द जिसके अन्त में है उस प्रातिपदिक के स्थान में (समासान्तः) समास का अवयव (अनङ्) अनङ् आदेश होता है ।
उदा० - कुण्ड के समान ऊधः = बांक है जिसका वह- कुण्डोनी गौ । घट-घड़े के समान ऊध: है जिसका वह - घटोनी गौ /
सिद्धि - कुण्डोध्नी । कुण्ड + सु + ऊधस् + सु । कुण्ड + ऊधस् । कुण्डोध अनङ् । कुण्डोधन् + ङीष् । कुण्डोधून्+ई। कुण्डोनी+सु । कुण्डोधी +० । कुण्डोनी ।
यहां कुण्ड और ऊधस् शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है। 'कुण्डोधस्' के सकार के स्थान में इस सूत्र से अनङ् आदेश होता । आदेश के ङित होने से वह 'ङीच्च' (१।१।५३) से अन्त्य अल् के स्थान में किया जाता है। 'अतो गुणे' (६ 1१1९७) से
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