Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

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Page 514
________________ पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः ४६७ बलवानित्यर्थः । यष्टिरिव ककुदं यस्य सः यष्टिककुत् । नातिस्थूलो नातिकृश इत्यर्थः । आर्यभाषाः अर्थ-(बहुव्रीहौ ) बहुव्रीहि समास में (ककुदस्य) ककुद शब्द जिसके अन्त में है उस प्रातिपदिक को (लोपः) लोप आदेश होता है (अवस्थायाम्) यदि वहां अवस्था = आयु आदि वस्तु- धर्मों की प्रतीति हो । उदा० - जिसके ककुद (बैल की थूही) असंजात = उत्पन्न नहीं हुआ है वहअसंजातककुत् बछड़ा। पूर्ण = पूरा है ककुद जिसका वह - पूर्णककुत् । मध्यम अवस्था का बैल | उन्नत है ककुद जिसका वह उन्नतककुत् । वृद्ध अवस्था का बैलः । स्थूल = मोटा है ककुद जिसका वह-स्थूलककुत्। बलवान् बैल। यष्टि=लाठी के समान दृढ है ककुद जिसका वह - यष्टिककुत् । न अधिक स्थूल और न अधिक कृश = पतला बैल | सिद्धि-असंजातककुत्। यहां असंजात और ककुद शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है। 'असंजातककुद' शब्द को इस सूत्र से लोपादेश है और वह 'अलोऽन्त्यस्य' (१1१1५२ ) से 'ककुद' के अन्त्य अकार का लोप होता है। ऐसे ही - पूर्णककुत आदि । लोपादेशः (निपातनम् ) - प०वि० - त्रिककुत् १ ।१ पर्वते ७ । १ । अनु० - समासान्ता:, बहुव्रीहौ, लोप इति चानुवर्तते । अन्वयः - बहुव्रीहौ त्रिककुत् समासान्तो लोप:, पर्वते । अर्थ:- बहुव्रीहौ समासे 'त्रिकुकुत्' इत्यत्र समासान्तो लोपादेशो निपात्यते पर्वतेऽभिधेये । 2 (३५) त्रिककुत् पर्वते । १४७ | उदा०-त्रीणि ककुदानि यस्य सः - त्रिककुत् पर्वतः । ककुदाकारं पर्वतस्य शृङ्गं ककुदमिति कथ्यते । आर्यभाषाः अर्थ-(बहुव्रीहौ ) बहुव्रीहि समास में (त्रिककुत्) त्रिककुत् इस पद में (समासान्तः) समास का अवयव ( लोपः) लोप आदेश निपातित है (पर्वते) यदि वहां पर्वत अर्थ अभिधेय हो । उदा० - तीन है ककुद जिसके वह - त्रिककुत् पर्वत । ककुद (बैल की थूही) के आकृतिवाले पर्वत के शिखर ककुद कहलाते हैं । सिद्धि - त्रिककुत् । यहां त्रि और ककुद शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है । त्रिककुद के ककुद शब्द को इस सूत्र से लोपादेश निपातित है और वह 'अलोऽन्त्यस्य' (१।१।५२) से कर्कुद के अन्त्य अकार का लोप होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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