Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
४६६ अर्थ:-अव्ययीभाव समासे वर्तमानाद् गिरिशब्दान्तात् प्रातिपदिकाच्च समासान्तष्टच् प्रत्ययो भवति, सेनकस्याचार्यस्य मतेन।
उदा०-गिरेरन्त:-अन्तर्गिरम्, अन्तर्गिरि । गिरे: समीपम्-उपगिरम्, उपगिरि।
आर्यभाषा: अर्थ-(अव्ययभावे) अव्ययभाव समास में विद्यमान (गिरे:) गिरि शब्द जिसके अन्त में है उस प्रातिपदिक से (च) भी (समासान्त:) समास का अवयव (टच्) टच् प्रत्यय होता है (सेनकस्य) सेनक आचार्य के मत में।
उदा०-गिरि पर्वत के अन्दर-अन्तर्गिर, अन्तगिरि। गिरि के समीप-उपगिर, उपगिरि।
सिद्धि-(१) अन्तर्गिरम। यहां अन्तर और गिरि शब्दों का 'अव्ययं विभक्तिः (२।१।६) से सप्तमी-विभक्ति के अर्थ में अव्ययीभाव समास है। 'अन्तर्' शब्द सप्तमी-अर्थ का वाचक है। 'अन्तर्गिरि' शब्द से इस सूत्र से सेनक आचार्य के मत में 'टच' प्रत्यय है। 'यस्येति च (६।४।१४८) से अंग के इकार का लोप होता है। ऐसे ही-उपगिरम् ।
(२) अन्तर्गिरि। यहां अन्तर् और गिरि शब्दों का पूर्ववत् अव्ययीभाव समास है तथा पाणिनिमुनि के मत में टच् प्रत्यय नहीं है। 'अव्ययीभावश्च' (११।४१) से अव्यय संज्ञा होकर 'अव्ययादाप्सुपः' (२।४।८२) से 'सु' का लुक् होता है। ऐसे हीउपगिरि।
विशेष: यहां 'अन्यतरस्याम्' पद की अनुवृत्ति में सेनक आचार्य के मत का उल्लेख विकल्प के नहीं अपितु पूजा के लिये है।
(घ) बहुव्रीहिसमासः षच
(१) बहुव्रीही सक्थ्यक्ष्णोः स्वाङ्गात् षच् ।११३।
प०वि०-बहुव्रीहौ ७१ सक्थि-अक्ष्णोः ६।२ (पञ्चम्यर्थे) स्वाङ्गात् ५।१ षच् १।१।
स०-सक्थि च अक्षि च ते सक्थ्यक्षिणी, तयोः-सक्थ्यक्ष्णो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-समासान्ता इत्यनुवर्तते। अन्वय:-बहुव्रीहौ स्वाङ्गाभ्यां सक्थ्यक्षिभ्यां समासान्त: षच् ।
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