Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

Previous | Next

Page 489
________________ ४७२ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-द्विमूर्ध: । द्वि+औ+मूर्धन्+औ। द्वि+मूर्धन्। द्विमूर्धन्+ष। द्विमूर्ध+अ। द्विमूर्ध+सु । द्विमूर्धः। यहां द्वि और मूर्धन् शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है। द्विमूर्धन् शब्द से इस सूत्र से समासान्त ष प्रत्यय है। 'नस्तद्धिते (६।४।१४४) से अंग के टि-भाग (अन्) का लोप होता है। ऐसे ही-त्रिमूर्ध: । 'पच्' प्रत्यय में चित:' (६।१।१६३) से अन्तोदात्त स्वर होता है और 'ष' प्रत्यय में 'आधुदात्तश्च' (३।१३) से आधुदात्त स्वर होता है। अत: स्वरभेद के लिये 'ष' प्रत्यय का विधान किया गया है। अप् (४) अप् पूरणीप्रमाण्योः ।११६ । प०वि०-अप् ११ पूरणी-प्रमाण्यो: ६।२ (पञ्चम्यर्थे)। स०-पूरणी च प्रमाणी च ते पूरणीप्रमाण्यौ, तयो:-पूरणीप्रमाण्यो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। अनु०-समासान्ता:, बहुव्रीहौ इति चानुवर्तते। अन्वय:-बहुव्रीहौ पूरणीप्रमाणीभ्यां समासान्तोऽप् । अर्थ:-बहुव्रीहौ समासे पूरण्यन्तात् प्रमाण्यन्ताच्च प्रातिपदिकात् समासान्तोऽप् प्रत्ययो भवति । अत्र पूरणीशब्देन पूरणप्रत्ययान्ता: स्त्रीलिङ्गा: शब्दा गृह्यन्ते। उदा०-(पूरणी) कल्याणी पञ्चमी यासां रात्रीणां ता:-कल्याणीपञ्चमा रात्रय: । कल्याणीदशमा रात्रय: । (प्रमाणी) स्त्री प्रमाणी येषां ते-स्त्रीप्रमाणा: कुटुम्बिनः । भार्याप्रधाना इत्यर्थः ।। आर्यभाषा: अर्थ-(बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास में (पूरणीप्रमाण्यो:) पूरणी और प्रमाणी जिसके अन्त में हैं उस प्रातिपदिक से (समासान्त:) समास का अवयव (अप) अप् प्रत्यय होता है। यहां पूरणी' शब्द से पूरण-प्रत्ययान्त स्त्रीलिङ्ग शब्दों का ग्रहण किया जाता है। उदा०-(परणी) जिन रात्रियों में पञ्चमी रात्रि कल्याणी मङगलमयी है वे-कल्याणी पञ्चम रात्रियां। जिन रात्रियों में दशमी रात्रि कल्याणी है वे-कल्याणी दशम रात्रियां। (प्रमाणी) जिन कुटुम्बी गृहस्थों में स्त्री प्रमाणी है वे-स्त्री प्रमाण कुटुम्बी। भार्याप्रधान गृहस्थ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536