Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

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Page 492
________________ पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः ४७५ अनु० - समासान्ता:, बहुव्रीहौ, अच्, नासिकायाः, नसम्, च इति चानुवर्तते । अन्वयः - बहुव्रीहावुपसर्गाद् नासिकाया: समासान्तोऽच्, नसं च । अर्थ:- बहुव्रीहौ समासे उपसर्गात् परस्माच्च नासिकाशब्दान्तात् प्रातिपदिकात् समासान्तोऽच् प्रत्ययो भवति, नासिकाया: स्थाने च नसमादेशो भवति । असंज्ञार्थमिदं वचनम् । उदा० - उन्नता नासिका यस्य सः - उन्नस: । प्रगता नासिका यस्य:प्रणसः । आर्यभाषाः अर्थ - (बहुव्रीहौ ) बहुव्रीहि समास में (उपसर्गात्) उपसर्ग से (च) भी परे (नासिकाया:) नासिका शब्द जिसके अन्त में है उस प्रातिपदिक से ( समासान्तः) समास का अवयव (अप्) अप् प्रत्यय होता है (च) और नासिका के स्थान में (नसम्) नस आदेश होता है। उदा०- उन्नत है नासिका जिसकी वह उन्नस । प्रगत = प्रकृष्ट- उत्तम है नासिका जिसकी वह प्रणस । सिद्धि-उन्नसः। उत्+नासिका + सु । उत्+नासिका+अच् । उत्+नस्+अ । उन्नस+सु । उन्नसः । यहां उत् उपसर्ग और नासिका शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है । 'उन्नासिका' शब्द से इस सूत्र से समासान्त 'अच्' प्रत्यय और नासिका के स्थान में नस आदेश है। 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही - प्रणस: । यहां वाo - 'उपसर्गाद् बहुलम्' (८/४/२८ ) से णत्व होता है। अच् (निपातनम्) - (८) सुप्रातसुश्वसुदिवशारिकुक्षचतुरश्रेणीपदाजपदप्रोष्ठपदाः । १२० । प०वि०-सुप्रात- सुश्व- सुदिव - शारिकुक्ष- चतुरश्र - एणीपद-अजपदप्रोष्ठपदा:१।३ । स०-सुप्रातश्च सुश्वश्च सुदिवश्च शारिकुक्षश्च चतुरश्रश्च एणीपदश्च अजपदश्च प्रोष्ठपदश्च ते सुप्रात० प्रोष्ठपदा ( इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अनु०-समासान्ता:, बहुव्रीहौ, अच् इति चानुवर्तते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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