Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

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Page 495
________________ ४७८ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् ___ स०-प्रजा च मेधा च ते प्रजामेधे, तयो:-प्रजामेधयोः (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अनु०-समासान्ता:, बहुव्रीहौ नजदु:सुभ्य इति चानुवर्तते। अन्वय:-बहुव्रीहौ नजदु:सुभ्यो प्रजामेधाभ्यां नित्यं समासान्तोऽसिच् । अर्थ:-बहुव्रीहौ समासे नजदु:सुभ्य: परस्मात् प्रजान्ताद् मेधान्ताच्च प्रातिपदिकाद् नित्यं समासान्तोऽसिच् प्रत्ययो भवति । उदा०-(प्रजा) अविद्यमाना प्रजा यस्य स:-अप्रजा: । दुष्ठु प्रजा यस्य स:-दुष्प्रजा: । सुष्ठु प्रजा यस्य स:-सुप्रजा:। (मेधा) अविद्यमाना मेधा यस्य स:-अमेधा: । दुष्ठु मेधा यस्य स:-दुर्मेधाः । सुष्ठु मेधा यस्य स:-सुमेधाः। आर्यभाषा अर्थ-(बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास में (नन्दुःसुभ्यः) नञ्, दुर्, सु शब्दों से परे (प्रजामेधयो:) प्रजा और मेधा शब्द जिसके अन्त में हैं उस प्रातिपदिक से (नित्यम्) सदा (समासान्त:) समास का अवयव (असिच्) असिच् प्रत्यय होता है। उदा०-(प्रजा) अविद्यमान है प्रजा जिसकी वह-अप्रजा। दूर-खराब है प्रजा जिसकी वह-दुष्प्रजा। सु-अच्छी है प्रजा जिसकी वह-सुप्रजा। (मेधा) अविद्यमान है मेधा तीव्रबुद्धि जिसकी वह-अमेधा। दुर्-खराब है मेधा जिसकी वह-दुर्मेधा। सु-अच्छी है मेधा जिसकी वह-सुमेधा। सिद्धि-अप्रजा: । नम्+सु+प्रजा+सु। अ+प्रजा+असिच् । अप्रज्+अस् । अप्रजस्+सु। अप्रजास्+सु । अप्रजास्+0। अप्रजारु । अप्रजार् । अप्रजाः । यहां न और प्रजा शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है। अप्रजा' शब्द से इस सूत्र से नित्य समासान्त 'असिच्' प्रत्यय है। 'अत्वसन्तस्य चाधातो:' (६।४।१४) से अंग की उपधा को दीर्घ होता है। हल्डन्याब्भ्यो दीर्घात्' (६।१।६७) से 'सु' का लुक्, 'ससजुषो रुः' (८।२।६६) से सकार को रुत्व और खरवसानयोर्विसर्जनीय:' (८।३।१५) से रेफ को विसर्जनीय आदेश होता है। ऐसे ही-दुष्प्रजा:, सुप्रजाः । अमेधाः, दुर्मेधाः, सुमेधाः। असिच् (निपातनम्) (११) बहुप्रजाश्छन्दसि।१२३। प०वि०-बहुप्रजा: ११ छन्दसि ७१। स०-बही प्रजा यस्य स:-बहुप्रजा: (बहुव्रीहि:) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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