Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अर्थ:- 'पूगायोऽग्रामणीपूर्वात्' (५ ।३।११२) इत्यस्मात् प्रभृति ये ज्यादय: प्रत्ययास्ते तद्राजसंज्ञका भवन्ति ।
उदा०-लोहध्वज एव-लौहध्वज्य:, लौहध्वज्यौ, लोहध्वाजा:, इत्यादिकमुदाहृतमेव।
आर्यभाषा: अर्थ-(ज्यादयः) पूगायोऽग्रामणीपूर्वात्' (५ ।३।११२) इस सूत्र से लेकर यहां तक जो व्य-आदि प्रत्यय विधान किये हैं उनकी (तद्राजा:) तद्राज संज्ञा होती है।
उदा०-लोहध्वज ही-लौहध्वज्य इत्यादि इसके उदाहरण हैं।
तद्राज संज्ञा का फल यह है कि तद्राजस्य बहुषु तेनैवास्त्रियाम्' (२।४।६२) से तद्राजसंज्ञक प्रत्यय का बहुवचन में लुक हो जाता है, जैसे-लौहध्वज्य:, लौहध्वज्यौ, लोहध्वजाः । इस प्रकार इस प्रकरण में सर्वत्र दर्शाया गया है।
__सिद्धि-लोहध्वजाः। लोहध्वज+जस्+ज्य। लोहध्वज+० । लोहध्वज+जस्। लोहध्वजाः।
यहां पूगवाची 'लोहध्वज' शब्द से पूगाज्योऽग्रामणीपूर्वात्' (५ ।३।११२) से ज्य' प्रत्यय है। इस सूत्र से उसकी तद्राज' संज्ञा होकर बहुवचन में 'तद्राजस्य बहुषु तेनैवास्त्रियाम् (२।४।६२) से 'व्य' प्रत्यय का लुक् हो जाता है। ऐसे ही-शिबयः आदि।
इति तद्राजसंज्ञकप्रत्ययप्रकरणम् ।
इति पण्डितसुदर्शनदेवाचार्यविरचिते पाणिनीयाष्टाध्यायीप्रवचने
पञ्चमाध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः ।।
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