Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् को आदिवृद्धि होती है। 'इनण्यनपत्ये' (६।४।१६४) से प्रकृतिभाव होने से नस्तद्धिते (६।४।१४४) से प्राप्त अंग के टि-भाग (इन्) का लोप नहीं होता है।
(२) सांकूटिनम् । 'कूट परितापे, परिदाह इत्येके' (चु०आ०) धातु से पूर्ववत् । अण
(१०) विसारिणो मत्स्ये।१६। प०वि०-विसारिण: ५।१ मत्स्ये ७।१। अनु०-अण् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-विसारिण: प्रातिपदिकाद् अण् मत्स्ये।
अर्थ:-विसारिन्-शब्दात् प्रातिपदिकात् स्वार्थेऽण् प्रत्ययो भवति, मत्स्येऽभिधेये।
उदा०-विसरतीति-विसारी। विसारी एव-वैसारिणो मत्स्य: ।
आर्यभाषाअर्थ-(विसारिणः) विसारिन् प्रातिपदिक से स्वार्थ में (अण्) अण् प्रत्यय होता है (मत्स्ये) यदि वहां मच्छली अर्थ अभिधेय हो।
उदा०-विसारी ही-वैसारिण मत्स्य (मछली)। सिद्धि-वैसारिणः । विसारिन्+सु+अण् । वैसारिन्+अ। वैसारिण+सु। वैसारिणः ।
यहां 'विसारिन्' शब्द से इस सूत्र से स्वार्थ में 'अण्' प्रत्यय होता है। तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि और 'इनण्यनपत्ये' (६ (४।१६४) से पूर्ववत् प्रकृतिभाव होता है। कृत्वसुच(११) संख्यायाः क्रियाभ्यावृत्तिगणने कृत्वसुच् ।१७ ।
प०वि०-संख्याया: ५।१ क्रिया-अभ्यावृत्ति-गणने ७१। कृत्वसुच् १।१।
स०-अभ्यावृत्ति:-पौन:पुन्यम् । क्रियाया अभ्यावृत्ति: क्रियाभ्यावृत्तिः, क्रियाभ्यावृत्तेर्गणनम्, क्रियाभ्यावृत्तिगणनम्, तस्मिन्-क्रियाभ्यावृत्तिगणने (षष्ठीतत्पुरुषः)।
अन्वय:-क्रियाभ्यावृत्तिगणने संख्याया: कृत्वसुच् ।
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