Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

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Page 420
________________ ४०३ पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः ४०३ अनु०-अन्यतरस्याम् इत्यनुवर्तते। अन्वयः-प्रतियोगे पञ्चम्या: स्वार्थेऽन्यतरस्यां तसिः। अर्थ:-प्रतियोगे वर्तमानात् पञ्चम्यन्तात् प्रातिपदिकात् स्वार्थे विकल्पेन तसि: प्रत्ययो भवति। उदा०-प्रद्युम्नो वासुदेवात् प्रति-वासुदेवत: प्रति । अभिमन्युरर्जुनात् प्रति-अर्जुनत: प्रति। आर्यभाषा: अर्थ-(प्रतियोगे) कर्मप्रवचनीय संज्ञक प्रति शब्द के योग में विद्यमान (पञ्चम्या:) पञ्चम्यन्त प्रातिपदिक से स्वार्थ में (अन्यतरस्याम्) विकलप से (तसि:) तसि प्रत्यय होता है। ___ उदा०-प्रद्युम्न वासुदेव (कृष्ण) का प्रतिनिधि है-वासुदेवत: प्रति। अभिमन्यु अर्जुन का प्रतिनिधि है-अर्जुनतः प्रति। सिद्धि-वासुदेवतः । वासुदेव+डसि+तसि। वासुदेव+तस्। वासुदेवतस्+सु। वासुदेव+० । वासुदेवतरु। वासुदेवतर् । वासुदेवतः । यहां कर्मप्रवचनीय संज्ञक प्रति शब्द के योग में विद्यमान पञ्चम्यन्त वासुदेव' शब्द से इस सूत्र से स्वार्थ में तसि' प्रत्यय है। स्वरादिनिपातमव्ययम्' (१९३७) से अव्यय-संज्ञा होकर 'अव्ययादाप्सुप:' (२।४।८२) से 'सु' का 'लुक्’ होता है। शेष कार्य 'बहुश:' के समान है। ऐसे ही-अर्जुनतः । यहां प्रतिः प्रतिनिधिप्रतिदानयोः' (१।४।९२) से प्रति' शब्द की कर्मप्रवचनीय संज्ञा होकर प्रतिनिधिप्रतिदाने च यस्मात् (१।३।११) से पञ्चमी विभक्ति होती है। तसिः (३६) अपादाने चाहीयरुहोः।४५। प०वि०-अपादाने ७१ च अव्ययपदम्, अहीय-रुहो: ६।२। स०-हीयश्च रुह् च तौ हीयरुहौ, न हीयरुहौ-अहीयरुहौ, तयो:अहीयरुहो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वनगर्भितबहुव्रीहि:)। अनु०-अन्यतरस्याम्, पञ्चम्याः , तसिरिति चानुवर्तते । अन्वय:-अहीयरुहोरपादाने च पञ्चम्या: स्वार्थेऽन्यतरस्यां तसिः । अर्थ:-हीयरुहसम्बन्धवर्जिताद् अपादाने कारके च वर्तमानात् पञ्चम्यन्तात् प्रातिपदिकात् स्वार्थे विकल्पेन तसि: प्रत्ययो भवति। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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