Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम्
४१०
करोति । उन्मनी भवति । उन्मनी स्यात् । (चक्षुः ) अनुच्चक्षुरुच्चक्षुः सम्पद्यते, तं करोति-उच्चक्षू करोति । उच्चक्षू भवति। उच्चक्षू स्यात्। ( चेत: ) अविचेता विचेता: सम्पद्यते, तं करोति- विचेती करोति । विचेती भवति । विचेती स्यात् । (रह: ) अविरहा विरहा : सम्पद्यते, तं करोति - विरही करोति । विरही भवति । विरही स्यात् । (रजः) अविरजा विरजा: सम्पद्यते, तं करोति - विरजी करोति । विरजी भवति । विरजी स्यात् ।
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आर्यभाषा: अर्थ- (कृभ्वस्तियोगे) कृ, भू, अस्ति के योग में और (सम्पद्यकर्तीर) 'सम्पद्यते' क्रिया के कर्ता रूप में विद्यमान ( अरुर्मनश्चक्षुश्चेतोरहोरजसाम् ) अरुष, मनस्, चक्षुष्, चेतस्, रहस्. रजस् प्रातिपदिकों से (अभूततद्भावे ) विकार रूप में अविद्यमान कारण का विकार रूप में विद्यमान होना अर्थ में (च्वि:) च्वि प्रत्यय होता है (च) और उनके अन्त्य वर्ण का (लोप) लोप होता है।
उदा०- - ( अरु: ) जो अनरु: = अमर्म, अरु:-मर्म बनता है और जो उसे बनाता है- अरू बनाता है। अरू होता है। अरू होवे । (मनः ) जो अनुन्मना - स्वस्थ मनवाला उन्मना=अस्वस्थ मनवाला बनता है और जौर जो उसे बनाता है- उन्मनी बनाता है। उन्मनी होता है । उन्मनी होवे। (चक्षुः ) जो अनुद्गत चक्षुष्मान् उद्गत चक्षुष्मान बनता है और जो उसे बनाता है- उच्चक्षू बनाता है। उच्चक्षू होता है। उच्चक्षू होवे । (चेतः) जो अविचेता = स्थिर चित्तवान् विचेता=अस्थिर चित्तवान् बनता है और जो उसे बनाता है-विचेती बनाता है । विचेती होता है। विचेती होवे । (रहः) जो अविरहा= अविरहवाला विरहवाला बनता है और जो उसे बनाता है- विरही बनाता है । ( रजः ) जो अविरजा= अविरागवाला विरागवाला बनता है और जो उसे बनाता है-विरजी बनाता है। विरजी होता है । विरजी होवे ।
सिद्धि-(१) अरू करोति । अरुष्+च्वि । अरु०+वि । अरू+वि । अरू+० । अरू+सु ।
अरू+01 अरू /
यहां कृ, भू, अस्ति के योग में, सम्पद्यते किया के कर्ता रूप में विद्यमान 'अरुष्’ शब्द से अभूततद्भाव अर्थ में इस सूत्र 'से 'वि' प्रत्यय और 'अरुष्' के अन्त्यवर्ण सकार का लोप होता है। 'च्वौ च' (७१४/२६ ) से अजन्त अंग को दीर्घ होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है । ऐसे ही - उच्चक्षू करोति ।
(२) उन्मनी करोति। यहां पूर्वोक्त 'उन्मनस्' शब्द से पूर्ववत् च्वि' प्रत्यय करने तथा अन्त्य वर्ण सकार का लोप हो जाने पर 'अस्य च्वौं' (७।४।३२) से अंग के अकार को ईकार आदेश होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है । ऐसे ही - विचेती करोति, विरही करोति, विरजी करोति ।
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