Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
४०६ उदा०-जो अशुक्ल-मलिन है, वह शुक्ल बनता है और जो उसे बनाता है-शुक्ली बनता है। मलिन को शुद्ध बनाता है। जो अशुक्ल है, वह शुक्ल होता है-शुक्ली होता है। जो अशुक्ल है वह शुक्ल होवे-शुक्ली होवे। जो अघट (मृत्तिका) घट बनता है और जो उसे बनाता है-घटी बनता है। जो अघट है, वह घट होता है-घटी होता है। जो अघट है, वह घट होवे, घटी होवे।
सिद्धि-शुक्ली करोति । शुक्ल+सु+च्चि । शुक्ल ई+वि। शुक्ली+० । शुक्ली+सु। शुक्ली+० । शुक्ली।
यहां कृ, भू, अस्ति के योग में और सम्पद्यते' क्रिया के कर्ता रूप में विद्यमान शुक्ल' शब्द से अभूततद्भाव अर्थ में इस सूत्र से च्वि' प्रत्यय है। 'अस्य च्वौं' (७।४।३२) से अंग के अकार को ईकार आदेश और वरपक्तस्य' (६।१।६६) से वि' का लोप होता है। स्वरादिनिपातमव्ययम्' (१।१।३७) से अव्यय संज्ञा होकर 'अव्ययादाप्सुपः' (२।४।८२) से सु' का लुक् होता है। ऐसे ही-शुक्ली भवति, इत्यादि।
विशेष: कृभ्वस्तियोगे सम्पद्यकर्तरि च्विः' इस मूल सूत्रपाठ में वाoविविधावभूततद्भावग्रहणम्' (महा० ५।४।५०) से सूत्रार्थ की स्वच्छता में 'अभूततद्भावें पद का नियोग किया गया है। च्विः (अन्त्यलोपः)
(२) अरुर्मनश्चक्षुश्चेतोरहोरजसा लोपश्चा५१।
प०वि०-अरु:-मन:-चक्षुः-चेत:-रह:-रजसाम् ६।३ लोप: ११ च अव्ययपदम्।
स०-अरुश्च मनश्च चक्षुश्च चेतश्च रहश्च रजश्च तानि अरु०रजांसि, तेषाम्-अरु०रजसाम् (इतरेतरयोगद्वन्द्व:) ।
अनु०-अभूततद्भावे, कृभ्वस्तियोगे, सम्पद्यकर्तरि, च्विरिति चानुवर्तते ।
अन्वय:-कृभ्वस्तियोगे सम्पद्यकर्तरि च अरुमनश्चक्षुश्चेतोरहोरजोभ्यश्च्विः , लोपश्च।
अर्थ:-कृभ्वस्तिभिर्योगे सम्पद्यकर्तरि च वर्तमानेभ्योऽरुर्मनश्चक्षुश्चेतोरहोरजोभ्य: प्रातिपदिकेभ्योऽभूततद्भावेऽर्थे च्वि: प्रत्ययो भवति, तेषामन्त्यवर्णस्य च लोपो भवति ।
__ उदा०-(अरु:) अनरुररु: सम्पद्यते, तं करोति-अरू करोति । अरू भवति । अरू स्यात्। (मन:) अनुन्मना उन्मना: सम्पद्यते, तं करोति-उन्मनी
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