Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः
१११ किया गया है। काशिकाकार पं० जयादित्य ने यहां ईकक्’ प्रत्यय का निपातन किया है। ठञ्' प्रत्यय से सिद्धि होने पर 'ईकक' प्रत्यय की कल्पना अनुचित है।
(२) किसी का समानकाल एक ही काल में आदि (उत्पत्ति) और अन्त (विनाश) सम्भव नहीं हो सकता अत: यहां उत्पत्ति के पश्चात् तत्काल विनाश होना तात्पर्य समझना चाहिये।
उपाय
तुल्यार्थप्रत्ययविधिः वति:
(१) तेन तुल्यं क्रिया चेद् वतिः।११४। ___ प०वि०-तेन ३१ तुल्यम् २१ क्रिया ११ चेत् अव्ययपदम्, वति: १।१ । 'तुल्यम्' इत्यत्र क्रियाविशेषणत्वात् कर्मणि द्वितीया।
अन्वय:-तेन प्रातिपदिकात् तुल्यं वति:, क्रिया चेत् ।
अर्थ:-तेन इति तृतीयासमर्थात् प्रातिपदिकात् तुल्यमित्यस्मिन्नर्थे वति: प्रत्ययो भवति, यत् तुल्यं क्रिया चेत् सा भवति ।
उदा०-ब्राह्मणेन तुल्यं वर्तते-ब्राह्मणवत्। राज्ञा तुल्यं वर्तते-राजवत्।
आर्यभाषा: अर्थ-तिन) तृतीया-समर्थ प्रातिपदिक से (तुल्यम्) समान अर्थ में (वति:) वति प्रत्यय होता है (क्रिया) जो तुल्य है (चेत्) यदि वह क्रिया हो।
उदा०-ब्राह्मण के तुल्य-समान है पठन-पाठन आदि क्रिया इसकी यह-ब्राह्मणवत्। राजा के तुल्य समान है प्रजा की रक्षा आदि क्रिया इसकी यह-राजवत्। यहां क्रिया की तुल्यता का कथन इसलिये किया गया है कि गुण की तुल्यता में वति-प्रत्यय न हो जैसे-पुत्रेण तुल्य: स्थूल:।
____ सिद्धि-(१) ब्राह्मणवत् । ब्राह्मण+टा+वति। ब्राह्मण+वत्। ब्राह्मणवत्+सु । ब्राह्मणवत्।
यहां तृतीया-समर्थ, 'ब्राह्मण' शब्द से तुल्य अर्थ में तथा क्रिया-अर्थ अभिधेय में इस सूत्र से 'वति' प्रत्यय है। 'स्वरादिनिपातमव्ययम्' (१।१।३७) में पठित 'वत-वदन्तमव्यय-संज्ञं भवति इस गण-सूत्र से 'ब्राह्मणवत्' पद की अव्ययसंज्ञा है अत: 'अव्ययादाप्सुपः' (२।४।८२) से 'सु' का लुक् हो जाता है।
(२) राजवत् । यहां तृतीया-समर्थ राजन्' शब्द से पूर्ववत् वति' प्रत्यय करने पर स्वादिष्वसर्वनामस्थाने (१।४।१७) से 'राजन्' शब्द की पद-संज्ञा और नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य' (८।२।७) से नकार का लोप होता है।
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