Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पञ्चमाध्यायस्य तृतीय पादः
३५५ यहां इव-अर्थ में विद्यमान 'शाखा' शब्द से इस सूत्र से यत्' प्रत्यय है। यस्येति च (६।४।१४८) से अंग के आकार का लोप होता है। ऐसे ही-मुख्यः, जघन्यः।
यत् (निपातनम्)
(६) द्रव्यं च भव्ये ।१०४। प०वि०-द्रव्यम् १।१ च अव्ययपदम्, भव्ये ७१। अनु०-इवे, यद् इति चानुवर्तते। अन्वय:-इवे द्रव्यं च यत् भव्ये।
अर्थ:-इवार्थे वर्तमानं द्रव्यमिति च पदं यत्प्रत्ययान्तं निपात्यते, भव्येऽभिधेये।
उदा०-द्रव्योऽयं राजपुत्रः। द्रव्योऽयं माणवकः, भव्य इत्यर्थः । अभिप्रेतार्थानां पात्रभूत इति भावः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(इवे) अर्थ में विद्यमान (द्रव्यम्) द्रव्य पद (यत्) यत्-प्रत्ययान्त निपातित है (भव्य) यदि वहां भव्य होनहार अर्थ अभिधेय हो।
उदा०-यह राजकुमार द्रव्य भव्य (होनहार) है। आशाओं का पात्र है। यह माणवक बालक द्रव्य भव्य (होनहार) है। 'भव्यगेयप्रवचनीय०' (३।४।६८) से भव्य' शब्द कर्ता अर्थ में निपातित है-भवत्यसौ भव्यः ।
सिद्धि-द्रव्य: । द्रु+सु यत् । द्रो+य। द्रव्+य। द्रव्य+सु। द्रव्यः ।
यहां इव-अर्थ में विद्यमान 'द्' शब्द से भव्य अर्थ अभिधेय में इस सूत्र से यत् प्रत्यय निपातित है। 'ओर्गुणः' (६।४।१४६) से अंग को गुण और 'वान्तो यि प्रत्यये' (६।१।७८) से वान्त (अव्) आदेश होता है। द्रु-काष्ठमय पात्र । काष्ठमय पात्र में दधि आदि पदार्थ विकृत नहीं होता है।
छ:
(१०) कुशाग्राच्छः ।१०५ । प०वि०-कुशाग्रात् ५।१ छ: ११ । स०-कुशाया अग्रम्-कुशाग्रम्, तस्मात्-कुशाग्रात् (षष्ठीतत्पुरुषः)। अनु०-इवे इत्यनुवर्तते।
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