Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अन्वय:-तस्य पील्वादिकर्णादिभ्य: पाकमूले कुणप्जाहचौ।
अर्थ:-तस्य इति षष्ठीसमर्थेभ्यः पील्वादिभ्यः कर्णादिभ्यश्च प्रातिपदिकेभ्यो यथासंख्यं पाकमूलयोरर्थयो: कुणप्जाहचौ प्रत्ययौ भवत: ।
उदा०-(पील्वादि) पीलूनां पाक:-पीलुकुणः। कर्कन्धुकुण:, इत्यादिकम्। (कर्णादि:) कर्णस्य मूलम्-कर्णजाहम् । अक्षिजाहम्, इत्यादिकम्।
(१) पीलु। कर्कन्धु । शमी। करीर। कवल। बदर। अश्वत्थ। खदिर। इति पील्वादयः ।।
(२) कर्ण। अक्षि। नख। मुख। मख। केश। पाद। गुल्फ। भ्रूभङ्ग । दन्त । ओष्ठ । पृष्ठ। अङ्गुष्ठ। इति कर्णादयः ।।
आर्यभाषा: अर्थ-(तस्य) षष्ठी-समर्थ (पील्वादिकर्णादिभ्यः) पीलु-आदि तथा कर्ण-आदि प्रातिपदिकों से (पाकमूले) यथासंख्य पाक और मूल अर्थ में (कुणप्जाहचौ) यथासंख्य कुणप् और जाहच् प्रत्यय होते हैं।
उदा०-(पील्वादि) पीलु फल का पाक-पीलुकुण (जाळवृक्ष का पका हुआ फल)। कर्कन्धु फल का पाक-कर्कन्धुकुण (पका हुआ बेर) इत्यादि। (कर्णादि) कर्ण का मूल-कर्णजाह (कान की जड़)। अक्षि का मूल-अक्षिजाह (आंख की जड़) इत्यादि।
सिद्धि-(१) पीलुकुण: । पीलु+आम्+कुणम् । पीलु+कुण। पीलुकुण+सु। पीलुकुणः ।
यहा षष्ठी-समर्थ 'पीलु' शब्द से पाक फल अर्थ में इस सूत्र से कुणप्' प्रत्यय है। ऐसे ही-कर्कन्धुकुणः।
(२) कर्णजाहम् । कर्ण+डस्+जाहच् । कर्ण+जाह । कर्णजाह+सु। कर्णजाहम्।
यहां षष्ठी-समर्थ 'कर्ण' शब्द से मूल जड़ अर्थ में इस सूत्र से जाहच्' प्रत्यय है। 'जाहच्' प्रत्यय के जकार की 'चुटू' (१।३ १७) से इत् संज्ञा नहीं होती है क्योंकि उसका कोई प्रयोजन नहीं है। ऐसे ही-अक्षिजाहम् । ति:
(२) पक्षात् तिः ।२५। प०वि०-पक्षात् ५।१ ति: ११ ।
अनु०-तस्य, मूलम् इति चानुवर्तते, पाक इति नानुवर्तते । तस्याऽर्थाभावात् । ‘एकयोगनिर्दिष्टानामप्येकदेशोऽनुवर्तते' इति परिभाषावचनात् ।
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