Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-(शीत) शीत-मन्द कार्य करनेवाला-शीतक । आलसी, जड़ पुरुष । (उष्ण) उष्ण-शीघ्र कार्य करनेवाला-उष्णक। शीघ्रकारी, दक्ष (चतुर) पुरुष। यहां शीत और उष्ण शब्द मन्द और शीघ्र के पर्यायवाची हैं, ठण्डा और गर्म अर्थक नहीं हैं।
सिद्धि-शीतकः । शीत+अम्+कन् । शीत+क। शीतक+सु। शीतकः ।
यहां द्वितीया-समर्थ शीत' शब्द से कारी अर्थ में इस सूत्र से कन्' प्रत्यय है। 'शीत' शब्द के क्रिया-विशेषण होने से कर्मणि द्वितीया' (२।३।२) से द्वितीया विभक्ति होती है। ऐसे ही-उष्णकः। कन् (निपातनम्)
(२) अधिकम् ।७३। वि०-अधिकम् १।१। अनु०-कन् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-अधिकं कन्।
अर्थ:-अधिकम् इति पदं कन्-प्रत्ययान्तं निपात्यते। अध्यारूढशब्दस्योत्तरपदलोप: कन् प्रत्ययश्चात्र निपातितो वेदितव्य: ।
उदा०-अधिको द्रोण: खार्याम् । अधिका खारी द्रोणेन।
आर्यभाषा: अर्थ-(अधिकम्) अधिक यह पद (कन्) कन् प्रत्ययान्त निपातित है। यहां अध्यारूढ शब्द के उत्तरपद (आरूढ) का लोप और कन् प्रत्यय का निपातन समझें।
उदा०-द्रोण परिमाण से खारी परिमाण अधिक है। द्रोण=१० सेर । खारी=१६० सेर (४ मण)।
सिद्धि-अधिकम् । अधि-आरूढ+सु+कन्। अधि+o+क। अधिक+सु। अधिकम्।
यहां अधि-आरूढ शब्द से इस सूत्र से 'कन्' प्रत्यय और उत्तरपद 'आरूढ' शब्द का लोप निपातित है। रुह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च' (भ्वा०प०) धातु से 'गत्यर्थाकर्मकश्लिषशीस्थासवसजनरुहजीर्यतिभ्यश्च' (३।४।७२) से 'क्त' प्रत्यय कर्तवाच्य और कर्मवाच्य में भी होता है। जब कर्तृवाच्य में क्त' प्रत्यय है। तब 'अधिको द्रोण: खार्याम् यह प्रयोग बनता है। यहां 'यस्मादधिकं यस्य चेश्वरवचनं तत्र सप्तमी' (२।३।७) से अधिकवाची 'खारी' शब्द में सप्तमी-विभक्ति होती है और जब कर्मवाच्य में 'क्त' प्रत्यय होता है तब 'अधिका खारी द्रोणेन' यह प्रयोग बनता है। यहां कर्तृकरणयोस्तृतीया' (२।३।१८) से अनभिहितकर्ता द्रोण में तृतीया और अभिहित कर्म खारी' में प्रथमा-विभक्ति होती है।
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