Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पञ्चमाध्यायस्य द्वितीय पादः
. १७१ अर्थ:-तद् इति प्रथमासमर्थात् संख्यापरिमाणेऽर्थे वर्तमानात् किम्शब्दात् प्रातिपदिकाद् अस्येति षष्ठ्यर्थे डतिर्वतुप् च प्रत्ययो भवति, तस्य च वकारस्य स्थाने घ आदेशो भवति।
उदा०-का संख्या परिमाणमेषां ब्राह्मणानामिति-कति ब्राह्मणा: (डति:) कियन्तो ब्राह्मणा: (वतुप्)।
आर्यभाषा: अर्थ- (तत्) प्रथमा-समर्थ (संख्यापरिमाणे) संख्या के परिमाण (इयत्ता) अर्थ में विद्यमान (किम:) किम् प्रातिपदिक से (अस्य) षष्ठी-विभक्ति के अर्थ में (डति:) डति (च) और (वतुप्) वतुप् प्रत्यय होता है और उसके (व:) वकार के स्थान में (घ:) घ आदेश होता है।
उदा०-कौन संख्या परिमाण है इन ब्राह्मणों की ये-कति ब्राह्मण (इति)। कति=कितने। कियान् ब्राह्मण (वतुप्)। कियान्=कितने।
सिद्धि-(१) कति । किम्+सु+डति। किम्+अति । क्+अति । कति+जस् । कति+० । कति।
यहां प्रथमा-समर्थ, संख्या-परिमाण अर्थ में विद्यमान किम्' शब्द से अस्य (षष्ठी) अर्थ में इस सूत्र से इति प्रत्यय है। डति प्रत्यय के 'डित्' होने से वा०-डित्यभस्यापि टेर्लोप:' (६।४।१४३) से अंग के टि-भाग (इम्) का लोप होता है। 'डति च' (१।१।२५) से डति-प्रत्ययान्त शब्द की षट् संज्ञा होने से 'षड्भ्यो लुक्' (७।१।२२) से जस् प्रत्यय का लुक् होता है।
(२) कियन्तः । किम्+सु+वतुप् । किम्+वत् । की+घत् । की+इयत् । क्+इयत् । कियत्+जस् । किय नुम् त्+अस् । कियन्त्+अस् । कियन्तः।
यहां प्रथमा-समर्थ, संख्यापरिमाणवाची किम्' शब्द से अस्य (षष्ठी) अर्थ में इस सूत्र से 'वतुप्' प्रत्यय और उसके वकार के स्थान में 'घ' आदेश होता है पूर्ववत् घ्' के स्थान में 'इय्' आदेश और अंग के ईकार का लोप होता है। प्रत्यय के उगित् होने से जस्' प्रत्यय परे होने पर उगिदचां सर्वनामस्थानेऽधातो:' (७।१।७०) से अंग को नुम्' आगम होता है। तयप्
(७) संख्याया अवयवे तयप।४२। प०वि०-संख्याया: ५।१ अवयवे ७।१ तयप् १।१ । अनु०-तत्, अस्य इति चानुवर्तते । अन्वय:-तद् अवयवे संख्याया अस्य तयप्।
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