Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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- पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः
१३३ अर्थ:-तस्य इति षष्ठीसमर्थाद् होत्रावाचिनो ब्रह्मन्-शब्दात् प्रातिपदिकाद् भावे कर्मणि चार्थे त्व: प्रत्ययो भवति।
उदा०-ब्रह्मणो भाव: कर्म वा ब्रह्मत्वम्। अत्र ब्रह्मन्-शब्दात् त्वप्रत्ययविधानं तत्प्रत्ययबाधनार्थम्।।
आर्यभाषा: अर्थ-(तस्य) षष्ठी-समर्थ (होत्राभ्यः) होत्रावाची-ऋत्विविशेषवाची (ब्रह्मणः) ब्रह्मन् प्रातिपदिक से (भाव:) भाव (च) और (कर्माण) कर्म अर्थ में (त्व:) त्व प्रत्यय होता है।
उदा०-ब्रह्मा नामक ऋत्विक् का भाव वा कर्म-ब्रह्मत्व। यहां ऋत्विग् विशेषवाची 'ब्रह्मन्' शब्द से त्व' प्रत्यय का विधान तल्' प्रत्यय के प्रतिषेध के लिये किया गया है। जो जातिवाची ब्रह्मन् (ब्राह्मण-पर्याय) शब्द है उससे तो त्व और तल् प्रत्यय होते ही हैं-ब्रह्मत्व, ब्रह्मता। ..
सिद्धि-ब्रह्मत्वम् । ब्रह्मन्+ङस्+त्व। ब्रह्म+त्व। ब्रह्मत्व+सु । ब्रह्मत्वम्।
यहां षष्ठी-समर्थ, होत्रावाची ब्रह्मन्' शब्द से भाव और कर्म अर्थ में इस सूत्र से त्व' प्रत्यय है। नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य (८।२७) से पद के नकार का लोप होता है। स्वादिष्वसर्वनामस्थाने' (१।४।१७) से ब्रह्मन्' शब्द की पदसंज्ञा है। .
विशेष: अथर्ववेद के ऋत्विजों में पाणिनि ने ब्रह्मा (५।१ ।१३५) अग्नीध् (८/२।९२) और पोता (६।४।११) का उल्लेख किया है। ऋग्वेद में ही ब्रह्मा का महत्त्व और ऋत्विजों की अपेक्षा विशेष माना जाने लगा था, उसे सुविप्र कहा गया है। ब्रह्मा चारों वेदों का और यज्ञ के सम्पूर्ण कर्मकाण्ड का अधिष्ठाता होता है, यही उसकी विशेषता थी। (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० ३६७)।
सूचना-स्त्रीपुंसाभ्यां नस्नौ भवनात्' (४।१।८७) का अधिकार समाप्त
हुआ।
इति पण्डितसुदर्शनदेवाचार्यविरचिते पाणिनीयाष्टाध्यायीप्रवचने
पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः।
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