Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) प्रथमा-समर्थ (ऋतो:) ऋतु प्रातिपदिक से (अस्य) षष्ठी-विभक्ति के अर्थ में (अण) अण् प्रत्यय होता है (प्राप्तम्) जो प्रथमा-समर्थ है यदि वह प्राप्त आगया हो।
उदा०-ऋतु जिसका प्राप्त आ गया है वह-आर्तव पुष्प (फूल)। सिद्धि-आर्तवम् । ऋतु+सु+अण्। आर्तो+अ। आर्तव+सु। आर्तवम् ।
यहां प्रथमा-समर्थ 'ऋतु' शब्द से अस्य (षष्ठी-विभक्ति) अर्थ में तथा प्राप्त अर्थ अभिधेय में इस सूत्र से 'अण्' प्रत्यय है। तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि और 'ओर्गुणः' (६।४।१४६) से अंग को गुण होता है। घस्
(३) छन्दसि घस् ।१०५। प०वि०-छन्दसि ७।१ घस् ११ । अनु०-तत्, अस्य, प्राप्तम्, ऋतोरिति चानुवर्तते। अन्वयः-छन्दसि तद् ऋतोरस्य धस् प्राप्तम् ।
अर्थ:-छन्दसि विषये तद् इति प्रथमासमर्थाद् ऋतु-शब्दात् प्रातिपदिकाद् अस्येति षष्ठ्यर्थे घस् प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थं प्राप्तं चेत् तद् भवति।
उदा०-ऋतु: प्राप्तोऽस्य-ऋत्वियः। 'अयं ते योनिर्ऋत्वियः' (ऋ० ३।२९ ।१०)।
आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (तत्) प्रथमा-समर्ध (ऋतो:) ऋतु प्रातिपदिक से (अस्य) षष्ठी-विभक्ति के अर्थ में (घस्) घस् प्रत्यय होता है (प्राप्तम्) जो प्रथमा-समर्थ है यदि वह प्राप्त आ गया हो।
उदा०-ऋतु इसका प्राप्त आ गया है यह-ऋत्विय। 'अयं ते योनिर्ऋत्विय:' (ऋ० ३ /२९ /१०)।
सिद्धि-ऋत्वियः । ऋतु+सु+घस् । ऋतो+इय। ऋतव्+इय। ऋत्विय+सु। ऋत्वियः।
___ यहां प्रथमा-समर्थ 'ऋतु' शब्द से अस्य (षष्ठी-विभक्ति) अर्थ में तथा छन्दोविषय में इस सूत्र से 'घस्' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) से घ्' के स्थान में 'इय्' आदेश होता है। 'घस्' प्रत्यय के सित् होने से सिति च' (१।४।१६) से ऋतु शब्द की पद संज्ञा होती है। पदसंज्ञा होने से भसंज्ञा निरस्त हो जाती है अत: यहां 'ओर्गुणः' (६।४।१४६)
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