Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः उदा०-(सम्) संवत्सर नामक वर्ष में बनाया गया-संवत्सरीण (ख)। संवत्सरीय (छ)। संवत्सर नामक वर्ष तक अधीष्ट, भृत, भूत वा भावी-संवत्सरीण अध्यापक आदि (ख)। संवत्सरीय अध्यापक आदि (छ)। (परि) परिवत्सर नामक वर्ष में बनाया गया-परिवत्सरीण (ख)। परिवत्सरीय (छ)। परिवत्सर नामक वर्ष तक अधीष्ट, भृत, भूत वा भावी-परिवत्सरीण (ख)। परिवत्सरीय (छ)।
सिद्धि-(१) संवत्सरीणम् । संवत्सर+टा/अम्+ख । संवत्सर+ईन। संवत्सरीण+सु। संवत्सरीणम्।
यहां तृतीया/द्वितीया विभक्ति समर्थ, सम्-पूर्वक, वत्सरान्त संवत्सर' शब्द से निर्वत्त आदि पांच अर्थों में छन्दोविषय में इस सूत्र से 'ख' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) से 'ख' के स्थान में 'ईन्' आदेश और 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। 'अट्कुप्वाङ्' से णत्व होता है। ऐसे ही-परिवत्सरीणम् ।
(२) संवत्सरीयम् । यहां पूर्वोक्त संवत्सर' शब्द से निवृत्त आदि पांच अर्थों में तथा छन्दोविषय में इस सूत्र से 'छ' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) से 'छु' के स्थान में 'ईय्' आदेश और पूर्ववत् अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-परिवत्सरीयम् ।
विशेष: अर्थशास्त्र के अनुसार पांच वर्ष का एक युग होता है। उन पांच वर्षों के पृथक्-पृथक् नाम होते हैं जिसमें संवत्सर और परिसंवत्सर नामक दो वर्ष हैं।
परिजय्याद्यर्थप्रत्ययविधि: यथाविहितं प्रत्ययः (ठ)
(१) तेन परिजय्यलभ्यकार्यसुकरम् ॥६२। प०वि०-तेन ३।१ परिजय्य-लभ्य-कार्य-सुकरम् १।१।
स०-परिजय्यश्च लभ्यश्च कार्यं च सुकरश्च एतेषां समाहार: परिजय्यलभ्यकार्यसुकरम् (समाहारद्वन्द्वः) ।
अनु०-कालात् इत्यनुवर्तते।
अन्वय:-तेन कालात् प्रातिपदिकात् परिजय्यलभ्यकार्यसुकरेषु यथाविहितं ठञ् ।
अर्थ:-तेन इति तृतीयासमर्थात् कालविशेषवाचिन: प्रातिपदिकात् परिजय्यलभ्यकार्यसुकरेष्वर्थेषु यथाविहितं ठञ् प्रत्ययो भवति।
उदा०-(परिजय्य:) मासेन परिजय्य:=शक्यते जेतुम्-मासिको व्याधिः । सांवत्सरिको व्याधिः । (लभ्य:) मासेन लभ्य:-मासिक: पट: ।
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