Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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हरिभद्र ने विपुल ग्रन्थों का सृजन मात्र प्रसिद्धि पाने के लिए नहीं किया, अपितु लैंक-कल्याण की भावना को लेकर ही किया है। उन्होंने अपने ग्रन्थों में कहीं भी अपना परिचय नहीं दिया है। परिचय नहीं होना भी विद्वानों के लिए एक समस्या का कारण बना कि वे हरिभद्र के जन्म व मृत्यु के सही समय को नहीं बता पा रहे हैं, लेकिन उनके समकालीन अथवा परवर्ती आचार्यों ने जो उल्लेख अपने ग्रन्थों में किया है, उसी के आधार पर आचार्य हरिभद्र का समय निर्धारण करने का प्रयत्न किया गया है। हरिभद्र का समय तभी मान्य होगा, जब सभी विद्वानों के बताए साक्ष्यों में एकमत्य हो।
आचार्य हरिभद्र के विषय में दो प्रकार के प्रमाण मिलते हैं1. ऐसे प्रमाण, जिनका ग्रन्थकार ने अपनी कृतियों में स्वयं उल्लेख किया है। 2. ऐसे प्रमाण, जिनका अन्य ग्रन्थकारों ने अपनी कृतियों में उल्लेख किया है।
हरिभद्र सम्बन्धी उल्लेख निम्न ग्रन्थों में प्राप्त हुए हैं। 1. ललितविस्तरा 2. पंचसूत्रटीका" 3. उपदेशपद की प्रशस्ति"
दशवैकालिकनियुक्तिटीका" 5. अनेकान्तजयपताका का अन्तिम भाग" 6. आवश्यकसूत्रटीका प्रशस्ति"
ग्रन्थ-प्रशस्ति से इतना ही ज्ञात हो पाता है कि ये जैन श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विद्याधर कुल से सम्बन्धित थे तथा जैन-धर्म के प्रति इनका झुकाव जैन साध्वी महत्तरा याकिनी के कारण हुआ था। यही कारण है कि वे अपने नाम के पूर्व याकिनीसूनु शब्द का प्रयोग करते थे। ग्रन्थों में उन्होंने अपना उपनाम 'भवविरह' भी उपस्थापित किया है। कुवलयमाला में उद्योतनसूरि ने इनका स्मरण 'भवविरह' शब्द द्वारा ही किया है।
हरिभद्र के जीवन कृत की जानकारी निम्न रचनाओं में भी थोड़ी बहुत प्राप्त होती हैभद्रेश्वरसूरि द्वारा रचित कहावली (12 वीं शताब्दी)
28 'कृति धर्मतो याकिनी महत्तरासूनोरावार्य हरिभद्रस्या'- हरिभद्रसूरि चरितम, लो.पं. हरिगोविन्ददास, पृ. 6 29 विकृतं च याकिनी महत्तरा, वही, पृ. 7 30 वही, पृ.6 31 हरिभद्रसूरि चरितम, ले. पं. हरिगोविन्द दास, पृ.6 32 वहीं, पृ.7 33 वहीं, पृ.7 34 समदर्शी आचार्य हरिभद्र-ले. सुखलाल संधवी-पृ. 5
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