Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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आचार्य हरिभद्र के व्यक्तित्व की विशेषताएँ
हरिभद्र का व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न था। उनकी बहुमुखी प्रतिभा ने अनेक जैन- जैनेत्तर विद्ववर्ग को प्रभावित किया। अनेक विद्वानों ने उन पर कलम चलायी।
हरिभद्र के व्यक्तित्व को निखारने में उनका समभाव, सत्यनिष्ठा तथा समन्वयशीलता और उदारता के गुण ही प्रमुख रहे हैं।
किसी भी विद्वान् की विद्वता की सफलता तब है, जब वह विषम परिस्थितियों में सहिष्णु एवं सत्यनिष्ठ बना रहे। उनके साहित्य से ज्ञात होता है कि हरिभद्र उस समय के उदार विचारक हैं, जिस समय दर्शन-जगत् में वाक्, छल और खण्डन- मण्डन का बोल-बाला था तथा प्रत्येक दार्शनिक स्वपक्ष का मण्डन एवं पर पक्ष का खण्डन करने में अपने को अत्यन्त चतुर व बहुमान मान रहा था।
धर्म-जगत् में भी पारस्परिक विद्वेष के कारण घृणा, कटाक्ष, आक्षेप, प्रत्याक्षेप की प्रवृत्ति प्रमुख बन गई थी। इसी विषम परिस्थिति में आचार्य हरिभद्रसूरि को भी अपने होनहार दो शिष्यों को गंवाना पड़ा। ऐसे विषम समय में भी समभाव को बनाए रखना यही सिद्ध करता कि हरिभद्र की उदारता व समन्वयशीलता अद्वितीय थी ।
हरिभद्र के इन असाधारण गुणों का मूल्यांकन इन विषम परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही किया जा सकता है, जिसमें हरिभद्र पूर्णतः खरे उतरते हैं ।
आचार्य हरिभद्र का कतित्व
एक जैन आचार्य के रूप में हरिभद्र की विद्वत्ता लैंक प्रसिद्ध है । वे भारतीयदर्शन एवं साहित्य-क्षेत्र की महान् विभूति थे । हरिभद्र की भूमिका भारतीय-चिंतन, धर्म-दर्शन, योग तथा जैन आगमिड्ढ - व्याख्यासाहित्य के क्षेत्र में अद्वितीय रही। परम्परागत मान्यता यह है कि आचार्य हरिभद्र ने 1444 ग्रन्थों की रचना थी। इतने अधिक ग्रन्थों की रचना जैन-धर्म के क्षेत्र में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व के धर्मों के साहित्य क्षेत्र में भी एक कीर्त्तिमान है। संयोग की बात है कि आज हरिभद्र के सम्पूर्ण ग्रन्थ हमें प्राप्त नहीं हैं । उनमें से मात्र 175 ग्रन्थों की ही सूचनाएँ उपलब्ध हैं । उसमें भी पं. सुखलालजी ने मात्र 45 ग्रन्थ ही निर्विवाद रूप से याकिनीसुनूहरिभद्र के स्वीकार किए हैं। डॉ. सागरमल जैन ने पंचाशक की भूमिका में अष्टक, षोड्शक, पंचाशक आदि ग्रन्थों में प्रत्येक अष्टक, षोड्षक, विंशिका, पंचाशक को एक स्वतंत्र मानकर हरिभद्र के ग्रन्थों की संख्या 200 तक पहुँचायी है। 27 जो भी हो, हम यह कह सकते हैं कि हरिभद्र ने इतनी विपुल संख्या में ग्रन्थों की रचना कर केवल जैन साहित्य के गौरव को ही नहीं बढ़ाया है, अपितु भारतीयसाहित्य के गौरव को भी अभिवर्द्धित किया है।
27 पंचाशक प्रकरण, डॉ. सागरमल जैन, पृ. VII
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