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प्राप्त करना आजीव नाम का दोष है। इससे लगता है कि इस काल में जाति व्यवस्था प्रचलित होकर तिर्यंच योनि में हाथी, घोड़ा और गाय आदि भेदों के समान मनुष्य समाज को भी अनेक भागों में विभक्त कर दिया गया। एक-एक वर्ग के भीतर जो अनेक जातियों और उपजातियां हो गईं, वह इसी व्यवस्था का परिणाम है।
जो जैन धर्म जाति प्रथा का विरोधी था, वह भी अपने को इस दोष से नहीं बचा सका । कहने के लिए समाज में 84 जातियां प्रसिद्ध हैं, परन्तु कुछ ऐसी भी हैं जो दो हजार वर्ष पहले ही अस्तित्व में आ गई थीं। इससे यह स्पष्ट है कि जाति स्थापना की नींव दो हजार वर्ष पूर्व पड़ चुकी थी, परन्तु वर्तमान स्वरूप दसवीं शताब्दी में अस्तित्व में आया । इस युग के हिन्दू प्रभाव से जैन समाज में भी यह जाति संख्या अति नियमित और कठोर हुई। खान-पान, विवाह संबंध, व्यवसाय और ऊंच-नीच की कल्पना शास्त्र से यह बराबर कायम रखा गया, परन्तु अब इसमें बहुत कुछ ढील आ चुकी है।
साधु-पद पर प्रतिष्ठित होने के नाते भट्टारक जाति-भेद से ऊपर होते थे । फिर भी विरुदावलियों में उनकी जाति का कई बार उल्लेख हो चुका है । जाति संस्था के व्यापक प्रभाव का ही यह परिणाम है। इसी प्रकार यद्यपि भट्टारकों के शिष्य वर्ग में सम्मिलित होने के लिए किसी विशेष जाति का होना आवश्यक नहीं था तथापि बहुतायत से एक भट्टारक पीठ के साथ किसी एक ही विशिष्ट जाति का संबंध रहता था । बलात्कारगण की सूरत- शाखा से हूमड़ जाति, अटेर शाखा से लमेंचू जाति, जेरहट शाखा से परवार जाति तथा दिल्ली-जयपुर शाखा से खण्डेलवाल जाति का विशेष संबंध पाया जाता है। इसी प्रकार काष्ठा संघ के माथुरगच्छ के अधिकांश अनुयायी हूमड़ जाति के और लाड़बागड़ गच्छ के अनुयायी बघेरवाल जाति के थे ।
पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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