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___ इन ग्रन्थों में रयणसार श्रावक व मुनिधर्म दोनों का प्रतिपादन करता है। मूलाचार मुनि व का वर्णन करता है। अष्टपाहुड़ के चारित्रपाहुइ में संक्षेप से श्रावक धर्म वर्णित है । कुरल काब्य नीति का अनूठा ग्रन्थ है और परिकर्म टोका में सिद्धांत कथन होगा । दश भक्तियां, सिद्ध, श्रुत, आचार्य आदि की उत्कृष्ट भक्ति का ज्वलंत उदाहरण है। शेष सभी ग्रन्थ मुनियों के सराग चरित्र और निर्विकल्प । समाधि रूप वीतराग चारित्र के प्रतिपादक हैं ।।
६. गुरु-गुरु के विषय में कुछ मतभेद है। फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि थी भद्रबाहु श्रुत केवली इनके परम्परा गुरु थे। कुमारनंदि आचार्य शिक्षा गुरु हो सकते हैं । किन्तु अनेक प्रशस्तियों से यह स्पष्ट है कि इनके दोक्षा गुरु "श्री जिनचन्द्र" आचार्य थे।
७. जन्म स्थान–इसमें भी मतभेद हैं-जैनेन्द्र सिद्धांत कोश में कहा है
"कुरलकाव्य १ प्र० २१ ५० गोबिन्दराय शास्त्री "दक्षिणोदेशे मलये हेमग्रामे मुनिमहात्मासीत् । एलाचार्यों नाम्नो द्रविड़ गणाधीश्वरो धीमान् ।" यह श्लोक हस्तलिखित मन्त्र ग्रन्थ में से लेकर लिखा गया है जिससे ज्ञात होता है कि महात्मा एलाचार्य दक्षिण देश के मलय प्रांत में हेमग्राम के निवासी थे और द्रविड़ संघ के अधिपति थे। मद्रास प्रेजीडेन्सी के मलयाप्रदेश में "पोन्नगाँव" को ही प्राचीनकाल में हेमग्राम कहते थे, और सम्भवतः वहीं कुन्दकुन्दपुर है। इसी के पास नीलगिरि पहाड़ पर श्री एलाचार्य को चरणपादुका बनी हुई हैं।' पं० नेमिचन्द्र जी भी लिखते हैं"कुन्दकुन्द के जीवन परिचय के सम्बन्ध में विद्वानों ने सर्वसम्मति से स्वीकार किया है".."फि ये दक्षिण भारत के निवासी थे। इनके पिता का नाम कर्मण्हु और माता का नाम श्रीमती था । इनका जन्म "कोण्डकुन्दपुर" नामक ग्राम में हुआ था। इस गाँव का दूसरा नाम “कुरमरई" भी कहा गया है यह स्थान पेदथनाडु नामक जिले में हैं।"
८. समय-आचार्य कुन्दकुन्द के समय में भी मतभेद है ! फिर भी डा० ए. एन. उपाध्याय ने इनको ई. सन् प्रथम शताब्दी का माना है। कुछ भी हो ये आचार्य श्री भद्रबाहु बाचार्य के अनंतर ही हुये हैं यह निश्चित है क्योंकि इन्होंने प्रवचनसार और अष्टपाहुड़ में सवस्त्रीमुक्ति और स्त्रोमुक्ति का अच्छा खण्डन किया है।
___ मंदिसंघ की पट्टावली में लिखा है कि कुंदकुंद वि० स० ४९ में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुये । ४४ वर्ष की अवस्था में उन्हें आचार्य पद मिला | ५१ वर्ष १० महीने तक वे उस पर प्रतिष्ठित रहे । उनको कुल आयु २५ वर्ष १० महीने और १५ दिन की थी।"
आपने आचार्य श्री कुंदकुंददेव का संक्षिप्त जीवन परिचय देखा है। इन्होंने अपने साधु जीवन में जितने ग्रन्थ लिखे हैं, उससे सहज ही यह अनुमान हो जाता है कि इनके साधु जीवन का बहुमाग लेखन कार्य में ही बीता है, और लेखन कार्य जंगल में विचरण करते हुए मुनि कर नहीं सकते। बरसात, आँधी, पानी, हवा आदि में लिखे गये पेजों की या ताड़पत्रों की सुरक्षा असम्भव
१. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश । २. तीर्थकर महावीर, पृ० १०१ । ३, जैनधर्म का प्राचीन इतिहास, भाग २, पृ० ८५ ।