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यतीश्वर श्री कुदकुंददेव रजःस्थान को और भूमितल को छोड़ कर चार अंगुल ऊँचे आकाश में चलते थे । उसके द्वारा मैं यों समझता हूँ कि वह अन्दर में और बाहर में रज से अत्यन्त अस्पष्टपने को व्यक्त करता हुआ।
"हल्ली नं० २१ ग्राम हेग्गरे में एक मन्दिर के पाषाण पर लेख-'स्वस्ति श्री वर्द्धमानस्य शासने | श्री कुदकुदनामाभूत चतुरंगुलचारणे ।" श्री वर्द्धमानस्वामी के शासन में प्रसिद्ध श्री कुंदकुंदाचार्य भूमि से चार अंगुल ऊपर चलने थे।
ष० प्रा० (मो० प्रशस्ति) पृ. ३७९ 'मामपंचक्रविराजितेन चतुरंगुलाकाशगमनद्धिना" नाम पंचक विराजित (श्री कुंदकुंदाचार्यः) ने चतुरंगुल आकाश गमन ऋद्धि द्वारा विदेह क्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगर में स्थित श्री सीमंधर प्रभु की वन्दना की थी।"
भद्रबाहु चरित में राजा चंद्रगुप्त के सोलह स्वप्नों का फल कहते हुए आचार्य ने कहा है कि "पंचमकाल में चारण ऋद्धि आदि ऋद्धियां प्राप्त नहीं होती।" अतः यहाँ शंका होना स्वाभाविक है किन्तु वह ऋद्धि निषेध कथन सामान्य समझना चाहिए। इसका अभिप्राय यही है कि "पंचम काल में ऋद्धि प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है, तथा पंचमकाल के प्रारम्भ में नहीं है आगे अभाव है ऐसा भी अर्थ समझा जा सकता है। यही बात पं० जिनराज फडकले ने मलाचार की प्रस्तावना में कही है।
ये तो हुई इनके मुनि जीवन की विशेषताएँ, अब आप इनके ग्रन्थों को देखिये
५. ग्रंथ रचनायें-कुदकुंदाचार्य ने समयसार आदि ८४ पाहुड़ रचे, जिनमें १२ पाहुड़ ही उपलब्ध हैं। इस सम्बन्ध में सवं विद्वान् एकमत हैं। परन्तु इन्होंने षट्खण्डागम ग्रन्थ के प्रथम पीट हण्डो र यो एक १९ लोक प्रमा: "रिकर्म" नाम की टीफा लिखी थी, ऐसा श्रुता. बतार में इंद्रनंदि आचार्य ने स्पष्ट उल्लेख किया है । इस ग्रन्थ का निर्णय करना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि इसके आधार पर ही आगे उनके काल सम्बन्धी निर्णय करने में सहायता मिलती है
एवं द्विविधो द्रव्य
भावपुस्तकगतः समागच्छत् । गुरुपरिपाट्या ज्ञातः
__सिद्धांतः कोण्डकुंडपुरे ॥ १६० ॥ श्री पद्मनंदिमुनिना सोऽपि ।
द्वादशसहस्रपरिमाणाः। ग्रन्थपरिकर्मकर्ता
षट्कण्डाद्यत्रिखण्डस्य ।। १६१ ।। इस प्रकार द्रव्य व भाव दोनों प्रकार के श्रुतज्ञान को प्राप्त करके गुरु परिपाटी से आये हुए सिद्धान्त को जानकर श्री पद्मनंदि मुनि ने कोण्डकुण्डपुर ग्राम में १२००० श्लोक प्रमाण परिकर्मनाम की षटलण्डागम के प्रथम तीन खण्डों को व्याख्या की। इनकी प्रधान रचनायें निम्न हैं
बदलण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर परिकर्म नाम की टीका-समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, अष्टपाहुड़, पंचास्तिकाय, रयणसार इत्यादि ८४ पाहुड़, मूलाचार दशभक्ति, कुरलकाव्य ।
१. जैनेन्द्र सिद्धांत कोष, पृ० १२८ ।