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वाउकायिगा जीवा वाउ जे समस्सिदा । दिट्टा वाउसमारंभे धुवा तेसिं विराधणा ॥१२३॥ वणप्फदिकायिगा जीवा वणफ्फदि जे समस्सिदा। दिट्ठा वणप्फदिसमारंभे धुवा तेसि विराधणा ॥१२४॥ जे तसकायिगा जीवा तसं जे समस्सिदा।
दिट्ठा तससमारंभे धुवा तेसि विराधणा' ॥१२५॥
श्री वसुनन्दि आचार्य ने 'पुढविकायिगा जीवा' यह प्रथम गाथा ली है। उसी की टीका में आगे की पाँचों गाथाओं का भाव दे दिया है। गाथा में किंचित् अन्तर है जो इस प्रकार है
पुढवीकायिगजीवा पुढवीए चावि अस्सिदा संति ।
तम्हा पुढवीए आरंभे णिच्चं विराहणा तेसिं ॥११६॥ टीका-'पृथिवीकायिकजीवास्तवर्णगंधरसा: सूक्ष्मा: स्थूलाश्च तंदाश्रिताश्चान्ये जीवास्त्रसा: शेषकायाश्च संति तस्मातस्याः पृथिव्या विराधनादिके खननदहनादिके आरंभे आरंभसमारंभसंरंभादिके च कृते निश्चयेन तेषां जीवानां तदाश्रितानां प्राणव्यपरोपणं स्यादिति । एवमप्कायिक-तेजःकायिक-वायुकायिक-वनस्पतिकायिकत्रसकायिकानां तदाश्रितानां च समारंभे ध्रुवं विराधनादिकं भवतीति निश्चेतव्यम् ।' इसी प्रकार और भी गाथाएँ हैं--
तम्हा पुढविसमारंभो दुविहो तिविहेण वि।
जिणमगगाणुचारीणं जावज्जीवं ण कप्पदि ॥११७॥ वसुनन्दि आचार्य ने मात्र इसी गाथा की टीका में लिखा है
"एवमप्तेजोवायूवनस्पतित्रसानां द्विप्रकारेऽपि समारंभे अवगाहनसेचनज्वालनतापनबीजनमुखवातकरणच्छेदन तथणादिकं न कल्प्यते जिनमार्गानुचारिण इति।"
किन्तु मेघचन्द्राचार्य कृत टीका की प्रति में 'तम्हा आउसमारम्भो' आदि से लेकर पाँच गाथाएँ स्वतन्त्र ली हैं।
ऐसे ही इन गाथाओं के बाद गाथा है
जो पुढविकाइजीबे ण वि सद्दहदि जिणेहि णिद्दिढें ।
दूरत्थो जिणवयणे तस्स उवट्ठावणा णत्थि ॥११८॥
मेघचन्द्राचार्य कृत टीका की प्रति में इसके आगे भी 'जो आउकाइ जीवे' आदि से 'जो तसकाइगे जोवे' तक पाँच गाथाएँ हैं। किन्तु वसुनन्दि आचार्य ने उसी 'पृथिवीकायिक' जीव सम्बन्धी गाथा की टीका में ही सबका समावेश कर लिया है।
१. मूलाचार कुन्दकुन्दकृत, पृ. ४७३-७४ । २. मूलाचार द्वितीय भाग, पृ. १४७ ।
आध उपोवृधात/२३
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