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कहीं-कहीं यह बात परिलक्षित होती है कि श्री मेघचन्द्राचार्य ने जो गाथायें अधिक ली हैं, वे श्री वसुनन्दि आचार्य को भी मान्य थीं।
षडावश्यक अधिकार में अरहंत नमस्कार की गाथा है । यथा
अरहंत णमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमदि ।
सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ॥५॥
इस गाथा को दोनों टीकाकारों ने अपनी-अपनी टीका में यथास्थान लिया है। आगे सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु को नमस्कार की भी ऐसे ही ज्यों की त्यों गाथाएँ हैं। मात्र प्रथम पद अरहंत के स्थान पर सिद्ध, आचार्य आदि बदला है। उन चारों गाथाओं को वसुनन्दि आचार्य ने अपनी टीका में छायारूप से ले लिया है। तथा मेघचन्द्राचार्य ने चारों गाथाओं को ज्यों की त्यों लेकर टीका कर दी। इसलिए ये चार गाथाएँ वहाँ अधिक हो गयी और वट्टकेरकृत प्रति में कम हो गयीं। षडावश्यक अधिकार में अरिहंत नमस्कार की एक और गाथा आयी है जिसे मेघचन्द्राचार्य ने इसी प्रकरण में क्रमांक ५ पर ली है जबकि श्री वसुनन्दि आचार्य ने आगे क्रमांक ६५ (प्रस्तुत कृति में गाथा क्र० ५६४) पर ली है। वह गाथा है
"अरिहंति वंदणणमंसणाणि अरिहंति पूयसक्कारं ।
अरिहंति सिद्धिगमणं अरहता तेण उच्चंति ॥५६४॥ सिद्ध परमेष्ठी आदि का लक्षण करने के बाद श्री मेघचन्द्राचार्य ने सिद्धों को नमस्कार आदि की जो गाथाएँ ली हैं उनकी ज्यों की त्यों छाया श्री वसुनन्दि आचार्य ने अपनी टीका में ही कर दी है और गाथाएँ नहीं ली हैं । एक उदाहरण देखिए
सिद्धाण णमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमदी।
सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण' ॥६॥ श्री वट्टकेरकृत प्रति में
"तस्मात् सिद्धत्वयुक्तानां सिद्धानां नमस्कारं भावेन य: करोति प्रयत्नमतिः स सर्वदुःखमोक्षं प्राप्नोत्यचिरेण कालेनेति ।
इस प्रकरण से यह निश्चय हो जाता है कि मेघचन्द्राचार्य ने जो अधिक गाथाएं ली हैं वे क्षेपक या अन्यत्र से संकलित नहीं हैं प्रत्युत मूलग्रन्थकर्ता की ही रचनाएँ हैं। आगे एकदो ऐसे ही प्रकरण और हैं।
___ इस आवश्यक अधिकार में आगे पार्श्वस्थ, कुशील आदि पाँच प्रकार के शिथिलचारित्री मनियों के नाम आये हैं। उनके प्रत्येक के लक्षण पाँच गाथाओं में किये गये हैं। मेघचन्द्राचार्य कृत टीका की प्रति में वे गाथाएँ हैं, किन्तु वसुनन्दि आचार्य ने अपनी टीका में ही उन पाँचों के लक्षण ले लिये हैं। उदाहरण के लिए देखिये मेघचन्द्राचार्य टीका की प्रति में
१. श्री कुन्दकुन्द कृत मूलाचार, पृ. २६४ । २. श्री वट्टकेरकृत मूलाचार, पृ. ३६६ । (प्रस्तुत कृति, पृ. ३८७)
आद्य उपोद्घात / २१
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