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मूकमाटी-मीमांसा :: 3 कोई-कोई नासमझ, दिग्भ्रान्त, नियतिवादी, मूढजन ऐसा कहते हैं कि कर्म-सिद्धान्त के अनुसार दया करना मूढता है, क्योंकि सब जीव अपने-अपने कर्मों के अनुसार सुख-दु:ख भोगते हैं, अत: हमें उनके कर्म-फल भोग में किसी प्रकार की रोक-टोक नहीं करनी चाहिए। उनके लिए कहते हैं कि दूसरों पर दया करना, स्वयं अपने पर दया करना है :
० "धम्मो दया-विसुद्धो" तथा "धम्म सरणं गच्छामि" (पृ. ७०)
"पर पर दया करना/बहिर्दृष्टि-सा मोह-मूढ़ता सा. स्व-परिचय से वंचित सा"/अध्यात्म से दूर"/प्राय: लगता है... ...पर की दया करने से/स्व की याद आती है/और
स्व की याद ही/स्व-दया है।” (पृ. ३७-३८) इस देश की आत्मावलम्बन, आत्मविश्वास तथा आत्मनिर्माण की आश्रम संस्कृति का परिचय देते हुए आचार्यश्री कहते हैं :
0 "यह/उपाश्रम का परिसर है/...यहाँ पर/जीवन का निर्वाह नहीं
'निर्माण' होता है/इतिहास साक्षी है इस बात का ।/अधोमुखी जीवन
...सहारा देनेवाला बनता है।" (पृ. ४२) ० "ऋषि - सन्तों का/सदुपदेश-सदादेश/हमें यही मिला कि
पापी से नहीं,/पाप से/पंकज से नहीं/पंक से/घृणा करो।/अयि आर्य !
नर से/नारायण बनो/समयोचित कर कार्य ।" (पृ. ५०-५१) आज के भारत में 'धर्म' और नैतिक जीवन की दुर्दशा एवं स्वार्थपरता पर कवि अपनी मर्मान्तक पीड़ा इन शब्दों में अभिव्यक्त करता है। अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता और समादर की तो बात ही क्या ? आज का दुःखद और कटु सत्य तो यह है कि सहधर्म, सजाति में ही बैर - वैमनस्य भाव परस्पर देखे जाते हैं । यथा-श्वान, श्वान को देखकर ही, नाखूनों से धरती को खोदता हुआ गुर्राता है बुरी तरह ।
" "वसुधैव कुटुम्बकम्"/इस व्यक्तित्व का दर्शन/स्वाद-महसूस इन आँखों को/सुलभ नहीं रहा अब !/यदि वह सुलभ भी है तो भारत में नहीं/महा-भारत में देखो! भारत में दर्शन स्वारथ का होता है।” (पृ.८२) ““वसुधैव कुटुम्बम्"/इस का आधुनिकीकरण हुआ है/'वसु यानी धन द्रव्य 'धा' यानी धारण करना/आज/धन ही कुटुम्ब बन गया है
धन ही मुकुट बन गया है जीवन का।” (पृ. ८२) धर्म और समाज में तथाकथित नेताओं के झूठ, कपट और आडम्बर पर मर्मवेधक तीव्र प्रहार करते हुए कवि कहता है:
"उस पावन पथ पर/दूब उग आई है खब!/वर्षा के कारण नहीं, चरित्र से दूर रह कर/केवल कथनी में करुणा रस घोल धर्मामृत-वर्षा करने वालों की/भीड़ के कारण !/आज पथ दिखाने वालों को पथ दिख नहीं रहा है, माँ!/कारण विदित ही है-/जिसे पथ दिखाया जा रहा है वह स्वयं पथ पर चलना चाहता नहीं,/औरों को चलाना चाहता है