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युग की प्रतिनिधि रचना : 'मूकमाटी'
राजेश पाठक कृति को पढ़ा । प्रथम बार में तो कृति की भाव-व्यंजना, उसके स्नेहिल चिकने भाव पकड़ में नहीं आए। द्वितीय बार में जो रहस्य प्रकट हुआ, उससे अभिभूत हुए बिना नहीं रह सका । जीवन मूल्यों की जीवन्तता ही मानव को नीचे से ऊपर की ओर, एक से अनेक की ओर, पतझड़ से वसन्त की ओर ले जाती है।
शान्त रस से आपूरित महाकाव्यात्मक शिल्प-वैशिष्ट्य कवि की नैसर्गिक प्रतिभा और सामर्थ्य कल्पना का प्रतिफलनात्मक यह महाकाव्य अन्तस् को छूता है, जाग्रत करता है सुषुप्तता को । यह कृति महामानव की सम्पूर्णताओं को भर, एक बार पुन: बताती है कि मानव यथार्थ में अनन्त सम्भावनाओं का केन्द्र-बिन्दु है, यदि व्यभिचारी प्रवृत्तियों का आचरण वह उतार फेंके तब । जन-जन के हृदय में अपने प्रवचनों की गूंज छोड़ देने वाले सन्त आचार्य विद्यासागर जी इतने उत्कृष्ट कोटि के साहित्यकार हैं, यह इनके महाकाव्य 'मूकमाटी' से विदित होता है।
उनका विरह, उनकी भक्ति, उनकी साधना किसी लौकिक वस्तु विशेष के प्रति या उसको प्राप्त करने के लिए नहीं है वरन् सर्वत्र प्रेम, समता, दया, सत्य, सुख, भक्ति की अनुभूति भरने के लिए है। उनकी आँखें तथा हृदय दोनों ही आस्था, विश्वास प्रेम से प्रभु को निहारते, पुकारते हैं, जो सम्पूर्ण जीवन को समग्रता से साक्षात्कार करा सके। इसीलिए वे सन्त-परम्परा में आ जाते हैं।
"पर की पीड़ा से अपनी पीड़ा का/प्रभु की ईडा में अपनी क्रीड़ा का संवेदन करता हो/पाप-प्रपंच से मुक्त, पूरी तरह/पवन-सम नि:संग।"
(पृ. ३००) गुणी वही है जो दुर्गणों पर चोट करे, सद्गुणों की प्रतिष्ठा करे, हृदय की पुकार को सुने और गन्तव्य का मार्ग प्रशस्त करे। वे सिर्फ उसे पुकार ही नहीं, अपितु पूरे पुरुषार्थ से अमर तत्त्व की प्राप्ति हेतु निरन्तर संघर्ष/उत्कर्ष देते हैं, तब वे परिषह-उपसर्ग सहते रहते हैं वा यमी-दमी और उद्यमी होने पर सफलता के साथ चलते दिखाई देते हैं :
"मोक्ष की मात्रा/"सफल हो/मोह की मात्रा/विफल हो धर्म की विजय हो/कर्म का विलय हो/जय हो, जय हो
जय-जय-जय हो !" (पृ. ७६-७७) कथनी और करनी में समानता होने पर लक्ष्य मिलने में कठिनाई नहीं आती। यही जीवन का अमर सत्य भी है। आचार्य विद्यासागरजी ने कथनी-करनी में विलोमता रखने वालों का आज के प्रसंग में जो चित्र अंकित किया है, दुःख का कारण भी वही है।
"गरम-चरमवाले ही/शीत-धरम से/भय-भीत होते हैं
और/नीत-करम से/विपरीत होते हैं।" (पृ. ९३) इसी कारण कथनी में करुणा रस घोल कर धर्मामृत वर्षा करने वालों की भीड़ की वजह से आज न चारित्र रहा, न धर्म रहा, न सुख-शान्ति वरन् जो भयावह विकृतियाँ आई हैं उन्होंने समाज के वास्तविक स्वरूप को बदल दिया है। ऐसे ही 'समाजवाद' के सिद्धान्त पर आचार्य विद्यासागरजी ने तीखा प्रहार कर युगीन प्रसंग प्रस्तुत किया है :
"स्वागत मेरा हो/मनमोहक विलासितायें/मुझे मिलें अच्छी वस्तुएँ