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508 :: मूकमाटी-मीमांसा निज के सम्बोधनार्थ कुछ लिखने की इसलिए प्रतिश्रुति की है ताकि शीघ्र शुद्धोपयोग की प्राप्ति सम्भव हो सके, वीतराग भाव आ सके।
उपयोग में तीन पक्ष होते हैं-कभी शुभ का, कभी अशुभ का और कभी शुद्ध का भी । यदि शुभ उपयोग रहा तो क्रमवार स्वर्ग-मोक्ष सभी मिलेंगे और अशुभ उपयोग ही बना रहा तो दु:ख की प्राप्ति होती रहेगी। अशुभोपयोग मिथ्यास्वरूप है और शुभोपयोग में सम्यक्त्व विद्यमान है । इस प्रकार शुभ और अशुभ पक्षों के लाभ-हानि का निरूपण करते हुए परिग्रही वृत्ति की निन्दा की है । शुद्धोपयोग रूप सहज स्वभाव की कोई सीमा नहीं है । वह ज्ञानगम्य, अतिरम्य, अप्रतिम तथा वचन-अगोचर है । उसे छोड़कर कहीं सुख नहीं। जड़ देह से आत्मा को एकात्म समझना आत्मघात है । जो मोह, मान, राग-द्वेष छोड़कर तपोलीन होते हैं, वे ही प्राप्य को पाते हैं । केवल कचलुचन अथवा वसन-मोचन से साधुता नहीं आती। जब निज सहज आत्मा की प्रतीति होती है तभी रति, ईति, भीति नि:शेष होती हैं । निर्ग्रन्थ मुनिगण सभी परीषहों और उपसर्गों को झेलते हुए नदी किनारे ध्यानमग्न रहते हैं। जो मानापमान में समान रहते हैं, आत्मध्यान करते हैं, वे कभी भी भवबीच में नहीं आते। जब यश-कीर्ति, भोग आदि सभी निस्सार हैं तो सुबुद्ध लोग इस पर व्यथा गर्व नहीं करते । वे तो निश्चिन्त हो निज में विहार करते हैं। ५. मुक्तक-शतक (१९७१ में आलेखन प्रारम्भ)
__मुक्तक वे रचनाएँ हैं जो पर से अनालिंगित रहकर अपने आप में पूर्ण और आस्वादकर होती हैं। इस संग्रह में ऐसे ही मुक्तक संकलित हैं। श्रीगुरु के द्वारा दिए गए उपदेश से आत्मजागरण, भवसम्पृक्ति से खेद, तन-मन से ज्ञानगुणनिकेतन आत्मा का भेद आदि की चर्चा मुक्तकों में की गई है । तदनन्तर अब उन्हें सर्वत्र उजाला, निराला शिवपथ, मोहनिशा का अपगम, बोधरवि किरण का प्रस्फुटन, समता-अरुणिमा की वृद्धि, उन्नत शिखर पर आरोहण, विषमता कण्टक का अपसरण अनुभवगोचर हो रहा है। उन्हें लग रहा है अब किसी की चाह नहीं है, दु:ख टल गया है, निज सुख मिल गया है। अविद्या का त्याग, कषायकुम्भ का विघटन हो चुका है । उनका विचार है कि मुनि वही है जो वशी है, अभिमान शून्य है । जिसे निज का ज्ञान नहीं है, वह व्यर्थ ही मान करता है । सुधी जानता है कि तत्त्वत: वह बाल, युवा और वृद्ध नहीं है, वस्तुत: ये सब जड़ के बवाल हैं। सुधीजन ऐसा समझता हुआ सहज निज सुख की साधना करता रहता है । आत्मा न कभी घटता है, न कभी बढ़ता है और न कभी मिटता है, पर खेद है कि मूढ़ को यह बात ज्ञात नहीं। झर-झर बहता हुआ झरना लोगों को यह सन्देश देता है कि निरन्तर गतिशील रहना है, मूल सत्ता से एकात्म होना है ताकि बार-बार चलना न पड़े। सरोजिनी सचेतना का जब से उदय हुआ, जब से प्रमोद का निरन्तर लहलहाना चल रहा है। जो प्रकृति से सुमेल रखता है, वह मिथ्या खेल खेल रहा है । वह विभाव से पूर्ण और स्वभाव से दूर है। अब तो चिरकाल से अकेली पुरुष के साथ केलिरत हूँ। वहाँ से अमृतधार पीने को निरन्तर मिलता है, सस्मित प्यार प्राप्त होता है। अब तो उन्हें सदैव चेतना प्रसन्न और अनुकूल रखेगी और निरन्तर उनका सहवास बना रहेगा, चिरवांछित सुखसमुद्र में गोता लगता रहेगा। ६. दोहा-स्तुति-शतक (४ अप्रैल, १९९३)
त्रिविध प्रतिबन्धकों के निराकरणार्थ, लोकसंग्रहार्थ आरम्भ मंगलाचरण से कर विभिन्न तीर्थकरों जैसे वन्दनीय चरणों का इस संग्रह में स्तवन किया गया है । सर्वप्रथम श्री गुरुचरणों का स्मरण इसलिए है कि उन्हीं ने गोविन्द बनाया है । तदनन्तर तीर्थंकर श्री आदिनाथ भगवान्, श्री अजितनाथ भगवान्, श्री शम्भवनाथ भगवान्, श्री अभिनन्दननाथ भगवान्, श्री सुमतिनाथ भगवान्, श्री पद्मप्रभ भगवान्, श्री सुपार्श्वनाथ भगवान्, श्री चन्द्रप्रभु भगवान्, श्री पुष्पदन्त