Book Title: Mukmati Mimansa Part 03
Author(s): Prabhakar Machve, Rammurti Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 606
________________ 518 :: मूकमाटी-मीमांसा पर्व : पूर्व भूमिका : दशलक्षण पर्व बड़ा महत्त्वपूर्ण पर्व है । कारण, दस दिन तक विभिन्न प्रकार से धर्म का आचरण करके हमें अपनी आत्मा के विकास का अवसर मिलता है। स्मरणीय यह है कि विषयों का विमोचन किए बिना धर्म- सेवन अनास्वादित ही रह जायगा । ___ उत्तम क्षमा : क्रोधोत्पत्ति के निमित्त प्रकाम कारण होने पर भी क्रोध का न होना क्षमा है। वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं। दस धर्म तो हैं ही, रत्नत्रय भी धर्म है और जीवों की रक्षा भी धर्म है । सभी तत्त्व वस्तु हैं, अत: सब का स्वभाव धर्म है । क्षमा हमारा स्वाभाविक धर्म है । क्रोध तो विभाव है । उस विभाव-भाव से बचने के लिए स्वभावभाव की ओर रुचि जाग्रत करना चाहिए। उत्तम मार्दव : जो मनस्वी पुरुष कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, शास्त्र और शील आदि के विषय में थोड़ा सा भी घमण्ड नहीं करता, उसमें मार्दव धर्म होता है । क्षमा की तरह मार्दव भी हमारा स्वभाव है । इसमें जो उत्तम विशेषण दिया गया है उसके पीछे यह भाव है कि उस धर्म के पालन के पीछे कोई दिखावा नहीं है । मार्दव का विरोधी कठोरता है । और यह मनोगत भाव है जो आचरण से टपकता है । अत: मन को साधना आवश्यक है । मनोगत कषाय का निवारण आवश्यक है। उत्तम आर्जव : जो मनस्वी पुरुष कुटिल भाव या मायाचारी परिणामों को छोड़कर शुद्ध हृदय से चारित्र का पालन करता है, उसके नियम से तीसरा आर्जव नाम का धर्म होता है। योगों की वक्रता का न होना ही आर्जव है। मन, वचन और काय- इन तीनों की क्रियाओं में वक्रता नहीं होने का नाम आर्जव है । ऋजु का भाव है - ऋजुता, और ऋजुता है -सीधापन । मृदुता के अभाव में ऋजुता नहीं आती। ___ उत्तम शौच : जो परम मुनि इच्छाओं को रोककर और वैराग्य रूप विचारों से युक्त होकर आचरण करता है, उसको ही शौच धर्म होता है। शरीर तो स्वभाव से ही अपवित्र है। उसमें यदि पवित्रता आती है, तो रत्नत्रय से । रत्नत्रय ही पवित्र है । वस्तुत: पवित्रता शरीराश्रित नहीं है, लेकिन यदि आत्मा शरीर के साथ रहकर भी धर्म को अंगीकार कर लेती है तो शरीर भी पवित्र माना जाने लगता है। उत्तम सत्य : जो मुनि दूसरों को क्लेश पहुँचाने वाले वचनों को छोड़कर अपने और दूसरे के हित के लिए हित करने वाले वचन कहता है, उसको चौथा सत्य धर्म होता है । क्या सत्य है और क्या असत्य है - यह जानने की कला तभी आ सकती है जब मोह का उपशम हो और माध्यस्थ भाव आ जाय । जब तक हमें अपने में सत्य को परखने की क्षमता नहीं आती तब तक सत्य का दर्शन नहीं होता। यह क्षमता दृष्टि में सम्यक्त्व के आने से आती है । जो सत्य को जान लेता है वह स्वयम् भी लाभान्वित होता है और दूसरों को भी उसके माध्यम से सत्य का दर्शन होने लगता है। उत्तम संयम : व्रत एवं समितियों का पालन, मन-वचन-शरीर की प्रवृत्ति का त्याग, इन्द्रियजय-यह सब जिसको होते हैं, उसी को नियम से संयम धर्म होता है । जैसे लता की ऊर्ध्वगति और समृद्धि के लिए किसी सहारे की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार दर्शन और ज्ञान को अपनी चरमसीमा अर्थात् मोक्ष तक पहुँचाने वाला संयम ही आलम्बन और बन्धन है। जैसे लता को अपनी समृद्धि के लिए सहारा के साथ खाद-पानी की ज़रूरत होती है उसी प्रकार मुमुक्षु को संयम के साथ शुद्धभाव रखना भी अनिवार्य है । संयम से ही आत्मानुभूति होती है। ___उत्तम तप : पाँचों इन्द्रियों के विषयों को तथा चारों कषायों को रोककर शुभ ध्यान की प्राप्ति के लिए जो अपनी आत्मा का विचार करता है, उसको नियम से तप धर्म होता है । तपश्चरण के बिना भवनवासी, वनवासी या संन्यासी में परिपक्वता नहीं आती। रत्नत्रय से युक्त होकर तप के द्वारा ही साक्षात् मुक्ति होती है । तप द्विविध हैंअन्तरंग और बाह्य । बाह्य तप साधन है और अन्तरंग तप की प्राप्ति में सहकारी है । तप भी तभी तक तप है जब शरीर

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