Book Title: Mukmati Mimansa Part 03
Author(s): Prabhakar Machve, Rammurti Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 594
________________ 506 :: मूकमाटी-मीमांसा श्वास नाभिमण्डल से प्रतिक्रमा के रूप में हृदय-कमल-चक्र पार करता ब्रह्मरन्ध्र तक उसे पहुँचाता हुआ ऊर्ध्वगम्यमान है और आपका श्रुतिमधुर संगीत श्रवण कर रहा है । क्या अवंशजा माधवीलता वंशाश्रित होकर भी वंशमुक्त हो लहलहाती हुई नहीं जीती ? २०. विभाव-अभाव : हे प्रभो ! आपने स्वभावनिष्ठ होकर विभाव-प्रभव क्रोध को समूल उच्छिन्न कर दिया है। तभी करुणा-निर्भर आपके नेत्रों में अरुण वर्ण की लालिमा नहीं है। २१. हे निरभिमान : अहर्निश स्वभाव-निरत होने के कारण मान-अभिमान का भाव भी आपसे प्रयाण कर चुका है, तभी नासिका चम्पक फूल को जीत रही है। २२. आकार में निराकार : इस रचना में गम्भीर किन्तु अमूर्त अध्यात्म क्षेत्र की रहस्यानुभूति व्यक्त हुई है। २३. स्थितप्रज्ञा : मोक्षमार्ग की तीनों रेखाएँ चेतना के भीतरी भाग में प्रतिष्ठित होकर सबको प्रभावित करती हुई कम्बुवत् ग्रीवा में भी उभर आई हैं-जिसकी छटा से लज्जित होकर शंख ने समुद्र में डूब कर रहना बेहतर समझा। २४. अधरों पर : हे प्रभो ! यह अनुमान से नहीं, अपितु प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है कि आपके विशाल पृथुल अगाध उदर के अन्दर आनन्द का अपरम्पार सागर लहरा रहा है, अन्यथा अधर से ऐसी ज्ञानमयी तरंगें कैसे उछलती ? २५. अर्पण : हे प्रभो ! क्या बात है कि अमा और प्रतिपदा को सुधा का आकर भी आकाश में दृष्टिगोचर नहीं होता? लगता है वह भी किसी आतप से क्लान्त होकर आपके पादप्रान्त की छाँव में पड़ा रहता है। २६. लाघव भाव : महान् की महत्ता अनुभवगोचर होने पर ही अपना लाघव भाव अनुभव में उतरने लगता है। २७. प्रतीक्षा में : शुक्ति समुद्र के अगाध जल से ऊपर आकर हर जलद खण्ड से नहीं, केवल स्वाति के जल की अपेक्षा में प्रतीक्षारत रहती है कि मुक्ता रूप ढलने वाली बूंद उस पर गिरे ताकि उसकी कोख चरितार्थता का अनुभव करे । यही मनोदशा जिज्ञासु उपासक के मन की होती है। __ अमन : मनोज के बाण से दूर रहने पर ही अमन का अनुभव होता है। २९. वहीं-वहीं कितनी बार : स्वभाव से कटा हुआ मानव तेली के बैल की तरह वहीं का वहीं भव-भ्रमण करता रहता है । स्वभावगामी पुरुषार्थ ही विभाव से मुक्ति दिला सकता है। प्रभु का सहारा भर चाहिए। डूबा मन रसना में : स्वपरबोधविहीना रसना की क्षुधा कभी यों ही मिटी है ? पर जब यह ज्ञात हुआ कि रसना पराश्रित रस चख नहीं सकती, तब आत्मरस के निमित्त समाहित हुआ और रसमग्न हो गया। दीन नयन ना : हे करुणाकर ! ऐसी शक्ति दो कि विषयों-कषायों में सल्लीन मानव के मुख से अश्राव्य निन्द्य वचन सुनकर विकलता अनुभव नयनों से न टपके। ३२. राजसी स्पर्शा : राजसी स्पर्श की तृषा कौन-कौन से कोने नहीं झंकाए, पर जब यह ज्ञात हुआ कि मेरी चेतना तत्त्वत: स्पर्शातीता है जबकि यह तो वैभाविकी राजसी स्पर्शा है । ३३. श्राव्य से परे : जिस प्रकार अश्राव्य से, उसी प्रकार श्राव्य स्तवन या प्रशंसा से भी हे मन ! तू प्रभावित न हो । ३४. ओ नासा : स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, श्रोतेन्द्रिय की भाँति घ्राणेन्द्रिय भी स्व-अनपेक्ष परगन्ध घ्राणन की वासना से क्लान्त रहती है। पर मेरी स्वभाव चेतना अनासा है। उसे न दुर्गन्ध से कुछ लेना न सुगन्ध से । वह उभयातीत आत्मगन्धा है । बस, प्रभु के चरणों का सहारा पर्याप्त है। ३५. सब में वही मैं : हे अमूर्त शिल्प के शिल्पी ! ऐसी गुणावभासिका आसिका दो कि वह मेरी नासिका ध्रुवगुण की उपासिका बन जाय।

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