Book Title: Mukmati Mimansa Part 03
Author(s): Prabhakar Machve, Rammurti Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 592
________________ 504 :: मूकमाटी-मीमांसा "जो कोई भी मनुज मन में आपको धार ध्याता, भव्यात्मा यों अविरल प्रभो! आप में लौ लगाता। जल्दी से है शिव सदन का श्रेष्ठ जो मार्ग पाता; श्रेयोमार्गी वह तुम सुनो ! पंचकल्याण पाता" ॥२४॥ 'समग्र : आचार्य विद्यासागर' (तीन) 'समग्र : आचार्य विद्यासागर' का खण्ड - तीन, आचार्यश्री के दुग्ध-धवल हृदय का स्वत: स्फूर्त समुच्छल प्रवाह भाषा में फूट पड़ा है । इसमें उनका कवि मुखर है, अन्यत्र उनका दार्शनिक और आराधक सन्त उद्ग्रीव है । कुन्तक विचित्रभणिति को काव्य कहते हैं । गोस्वामी तुलसीदासजी का पक्ष है : "भणिति विचित्र सुकवि कृत जोई, रामनाम बिनु सोह न सोई।" काव्य का केन्द्रीय तत्त्व 'सौन्दर्य' सुकविकृत चाहे जितनी विचित्र भणिति हो, पर उनकी दृष्टि में बिना भागवत् चेतना के संस्पर्श के वह व्यक्त नहीं होता। इसी प्रकार सन्तशिरोमणि आचार्य विद्यासागरजी की मान्यता है कि उनकी और उन जैसे सन्तों की प्रकृति और रुचि तब तक सौन्दर्य का उन्मेष नहीं मानती, जब तक काव्योचित सारा प्रवाह शान्तरस पर्यवसायी न हो । व्यास का महाभारत काव्य भी भवविरसावसायी और शान्तपर्यवसायी ही है । अभिप्राय यह कि यह भारतीय परम्परा सम्मत है। १. नर्मदा का नरम कंकर (१९८०) छत्तीस कविताओं के संग्रह स्वरूप इस काव्य संग्रहगत कविताओं में निम्न भाव व्यंजित होता है : __ वचन सुमन : इसमें रचयिता शक्ति-स्रोत के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हुआ अपने वचन सुमन अर्पित करता __ हे आत्मन् ! : यह संसार विकल, अशान्त और विश्रान्त केवल इसलिए है कि उसने अपने हृदय में वीतराग की प्रतिष्ठापना कहाँ की? मानस हंस : इसमें रचयिता अनुत्तर से उत्तर चाहता है कि उसका मानस हंस क्यों तुम्हारे श्रीपाद से निर्गत अमेय आनन्द सागर में नखपंक्तियों के मिस बिखरी मणियों को चुगने के लिए इतना व्यग्र है ? अपने में... एक बार : रचयिता इसमें उस पावापुरी की धरती का स्मरण कर रहा है जहाँ से जिनेन्द्र महावीर ने ध्यान-यान पर आरूढ़ हो निज धाम को प्रयाण किया था । वहाँ की लता, फूल, पवन, भ्रमर व धरती तृण बिन्दुओं के व्याज से अपने दृग-बिन्दुओं द्वारा मानों महावीर का पाद-प्रक्षालन कर रही हों। ५. भगवद् भक्त : इसमें की गई यह विस्मयावह अनुभूति कि वह पौद्गलिक लबादे रूप शरीर से मुक्त होकर सहज ऊर्ध्वगमन करता जा रहा है, पर अकस्मात् गुरु-चरणों का गुरुत्वाकर्षण प्रतिपात के लिए सिर झुका देता है और उनकी चरण-रज मस्तक पर ज्ञाननेत्र की शोभा पाता है । इस यात्रा में समस्त बाधक काल-काम ध्वस्त हो रहे हैं। एकाकी यात्री : एकाकी यात्री ऊर्ध्वगमन तो कर रहा है पर अवरोध और बाधाओं से जूझ भी रहा है, अपार पारगामी भगवान् से दिशानिर्देश और सहारा चाहता है। एक और भूल : इसमें साधक स्वभाव में प्रतिष्ठित होने के लिए एक अथक प्रयास तो कर रहा है, पर वह माया ७.

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