________________
486 :: मूकमाटी-मीमांसा
“नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा ।
कवित्वं दुर्लभं लोके शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा ।" __ऐसे भविष्णु आचार्य का धराधाम पर अवतरण कर्नाटक प्रान्त के बेलगाम जिला के अन्तर्गत सदलगा ग्राम के निकटवर्ती नगर 'चिक्कोड़ी' में विक्रम संवत् २००३ की शरद पूर्णिमा, १० अक्टूबर, १९४६, बृहस्पतिवार को लगभग अर्धरात्रि को हुआ था। दिशाएँ अनेक हैं, पर वास्तविक और महनीय दिशा तो वही प्राची है जिसके गर्भ से सूर्योदय होता है । श्रीमती श्रीमतीजी अष्टगे ऐसी ही प्राची दिशा थी जिसके गर्भ में विद्याधर प्रभाकर आया । श्रीमती श्रीमतीजी सदलगा निवासी सुश्रावक श्री मल्लप्पा पारसप्पाजी अष्टगे की धर्मपत्नी थीं। श्री मल्लप्पाजी का उदय भी किसी और काशीबाई नामक प्राची से सम्भव हुआ था-जो पुण्यश्लोक श्री पारसप्पा मल्लप्पाजी अष्टगे की धर्मपत्नी थीं। इस प्रभाकर विद्याधर में एक ओर उस दहकने की सम्भावना भी थी, जो अमांगलिक तत्त्वों को ध्वस्त कर डालती है और दूसरी ओर वह शीतल प्रकाश भी है जो अभ्युदय और निःश्रेयस्कारी है। ये ऐसी विशेषताएँ हैं जो लोकप्रसिद्ध प्रभाकर से इस प्रभाकर का व्यतिरेक बनाती हैं।
"उदयति दिशि यस्यां भानुरेषैव प्राची।" निश्चय ही यह वंश आध्यात्मिक संस्कारों से मण्डित रहा है । फलत: वे संस्कार और प्रगुणित होकर विद्याधरश्री की चेतना में संक्रान्त हो गए थे। इनके माता-पिता थे तो अपने गाँव में साहूकार के रूप में परिगणित, पर उनमें वणिग्वृत्ति उदग्र नहीं थी। कृषि जीविका थी। लेन-देन चलता था, पर वे समाज में एक ऐसे न्यासी (ट्रस्टी) के रूप में भी जाने जाते थे जो निर्व्याज ज्ञात पात्रों की सहायता करते थे। प्रतिदिन देवदर्शन, शास्त्र स्वाध्याय, समाज सभाओं में धर्म-चर्चा उनकी दिनचर्या थी। यह उनकी विद्या-विनय-सम्पन्नता ही थी कि लोग उन्हें मल्लिनाथ भगवान् के नाम से मल्लिनाथ ही पुकारने लगे थे। माता-पिता यदा-कदा मुनि दर्शन और तीर्थाटन के लिए भी बाहर जाया करते थे। यह परिवार अपने आचरण में नैतिकता, व्रतनिष्ठा का पूरी चेतना से पालन करता था । भोजन में शाकाहार और शुद्धि की बात तो सामान्य थी। माता में यह भावना कि संसार विनश्वर है, शरीर तो अपनी शीर्यमाणता के लिए प्रसिद्ध है ही, अत: उसकी चिन्ता तपस्या के सम्बन्ध में आड़े नहीं आना चाहिए, जम गई थी । फलत: वे अस्वस्थता को नज़रंदाज़ करती हुई व्रतउपवास तो निरन्तर रखती थीं। किसी रचनाकार ने कहा है :
___"सत्यं मनोरमा रामाः सत्यं रम्या विभूतयः ।
किन्तु मत्ताङ्गनापाङ्गभङ्गलोलं हि जीवितम् ॥" यह सही है कि संसार में दाम्पत्य सुख अभिलषणीय है, पुरुष के लिए रमणी और रमणी के लिए पुरुष विलोकनीय है। संसार में बहुत कुछ ऐसा है जो चेतना को अपनी ओर खींचता है, पर कुछ लोग इन सबके बीच भी ऐसे हैं जो जानते हैं कि जिस जीवन के लिए यह सब कुछ है उसकी सत्ता का क्या ठिकाना ? एक दूब की नोक पर पड़ी ओस की बूंद कीसी स्थिति उसकी है, जो एक हलकी हवा की झोंक से कभी भी गिरकर विनष्ट हो सकती है। इसलिए निरन्तर ऐसी स्थिति की ओर लक्ष्य रखती थीं जो निरतिशय और अविनश्वर हो । इस लक्ष्य की दिव्यचेतना संसार के क्षणिक आकर्षणों में कैसे फंस सकती थी ? माता-पिता दोनों ही धर्मपरायण, अल्पपरिग्रही, परार्थसेवाभावी तथा परमार्थी स्वभाव के व्यक्ति थे । घर के प्रमुख की इस सद्वृत्ति की सुगन्ध पूरे पारिवारिक परिवेश में व्याप्त थी। सुना जाता है कि ये दोनों प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी अपने ग्राम से अठारह किलोमीटर दूर एक ऐसे समाधिस्थल पर जाया करते थे जो अक्किवाट के नाम से प्रसिद्ध था और जिसमें भट्टारक मुनि श्री विद्यासागरजी की स्मृति संचित थी। ऐसे ही पारिवारिक परिवेश में इस महापुरुष का अवतरण हुआ । नाम भी कदाचित् इस शिशु का इन्हीं मुनिश्री के नाम पर विद्याधर रखा गया।