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490 :: मूकमाटी-मीमांसा केवलज्ञान ही प्रत्यक्ष का पारमार्थिक रूप है । जीवन दर्शन के सन्दर्भ में इसी साक्षात् अपरोक्षानुभूति या केवलज्ञान को लेना अवसरोचित लगता है। इस दर्शन को दृष्टि का पर्याय माना जाता है । यह दर्शन या दृष्टि त्रिविध है। दृष्टि या दर्शन विश्वदृष्टि, जीवनदृष्टि, काव्यदृष्टि और आलोचनदृष्टि के भेद से विविध प्रकार की है। हमें यहाँ जीवनदृष्टि या दर्शन पर विचार करना है। विश्वदृष्टि से अभिप्राय विश्व के मूलभूत उपादान से है जबकि 'जीवनदर्शन' त्रिकोण है-शीर्ष पर गन्तव्य है, तदर्थ निर्धारित मार्ग द्वितीय आधार बिन्दु है और तृतीय बिन्दु है – मार्ग के प्रति आस्था के दृढीकरण के लिए मनन या चिन्तन । इस मनन में अपने मार्ग के प्रति आस्था को विकम्पित करने वाले जो विकार हों, उनका खण्डन करे । यहाँ खण्डन अपने मार्ग के प्रति आस्था के दृढ़ीकरण के लिए है, न कि परकीय मत के खण्डन के लिए। मंज़िलबद्ध साधक सभी मार्गों के प्रति सहिष्णु होता है पर आस्था अपने प्रस्थान के मार्ग के प्रति रखना है। अनेकान्तवाद इसी का परिणाम है।
__ आचार्यश्री के जीवन-दर्शन का जहाँ तक सम्बन्ध है, उनकी रचनाओं से उसे प्राप्त किया जा सकता है। रचना यानी काव्य में साधना-लब्ध संवेदना मुखर रहती है। उसकी पुष्टि में, तह में सिद्धान्त और मान्यताएँ संलग्न रहती हैं। किसी सन्त का जीवन-दर्शन उसकी साधना-प्रसूत संवेदना की अभिव्यक्ति से निर्झरित होता है । अत: उनकी रचनाओं के माध्यम से उनका जीवन-दर्शन पाया जा सकता है। आचार्यश्री 'दर्शन' का अर्थ केवल मनन' तक ही सीमित रखते हैं। वे कहते हैं :
"दर्शन का स्रोत मस्तक है,/स्वस्तिक से अंकित हृदय से अध्यात्म का झरना झरता है ।/दर्शन के बिना अध्यात्म-जीवन चल सकता है, चलता ही है/...अध्यात्म स्वाधीन नयन है दर्शन पराधीन उपनयन/दर्शन में दर्श नहीं शुद्धतत्त्व का...
अध्यात्म सदा सत्य चिद्रूप ही/भास्वत होता है।" ('मूकमाटी', पृ. २८८) इस प्रकार वे मानते हैं कि दर्शन मस्तिष्क की उपज है जबकि अध्यात्म का स्रोत हृदय है। जो भी हो, जीवनदर्शन में गन्तव्य, मार्ग और आस्था के दृढ़ीकरण में उपयोगी मनन-तीनों का समावेश है । आखिर मस्तिष्क प्रसूत चिन्तन साधन ही है-साध्य या गन्तव्य तो है नहीं। उपर्युक्त तीनों बिन्दु परस्पर संलग्न और सम्बद्ध हैं। उनका विचार है- “दर्शन का आयुध शब्द है - विचार, अध्यात्म निरायुध होता है/सर्वथा स्तब्ध - निर्विचार !/एक ज्ञान है, ज्ञेय भी/एक ध्यान है, ध्येय भी" ('मूकमाटी', पृ. २८९)। उनकी दृष्टि में :
“ 'स्व' को स्व के रूप में/'पर' को पर के रूप में/जानना ही सही ज्ञान है,
और/'स्व' में रमण करना/सही ज्ञान का 'फल'।" ('मूकमाटी, पृ. ३७५) आचार्यश्री की दृष्टि में यही गन्तव्य है । 'तत्त्वार्थसूत्र' में आचार्यश्री उमास्वामी का कहना है : "कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः।" सम्पूर्ण कर्म का क्षय होते ही जीव अपने नैसर्गिक स्वरूप को प्राप्त कर लेता है और उसमें इन अनन्त चतुष्टयों की उत्पत्ति सद्यः हो जाती है – अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य । आचार्यश्री ने अपने ढंग से गन्तव्य का स्वरूप उक्त पंक्तियों में स्पष्ट कर दिया है । उसे यानी मोक्षरूप मंज़िल को और स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है :
"बन्धन-रूप तन,/मन और वचन का/आमूल मिट जाना ही