Book Title: Mukmati Mimansa Part 03
Author(s): Prabhakar Machve, Rammurti Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 585
________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 497 ५. 'सुनीति-शतकम्' (संस्कृत, २५ अप्रैल, १९८३) एवं 'सुनीति-शतक' (हिन्दी, २५ अप्रैल, १९८३) __ इस खण्ड का अन्तिम शतक है 'सुनीति -शतकम्' । इस शतक में यह बताया गया है कि साधक को निरन्तर नीति मार्ग पर आरूढ़ रहना चाहिए। और सन्तों ने भी कहा है : "...नीति पथ चलिय राग-रिल जीति ।" पर नीति पथ है क्या-यह जानकर चलना अपने आप में प्रगुणित हो जाता है । सत् क्रिया तो अच्छी है ही, ज्ञानपूर्वक सम्पादित होने से वह और गुणवती हो जाती है। अत: साधकों के कल्याण के लिए आचार्यश्री ने इस शतक को नीति-निर्भर कर रखा है। आचार्यश्री ने उचित ही कहा है कि शास्त्र व्यवसाय के लिए नहीं बना है, जीवन को गन्तव्यानुरूप साधना-पथ पर चलने के, दिशादान के लिए बना है। मुनिश्री का उपदेश है कि इन्द्रिय विषयों में आसक्त रहने वाले जो मनुष्य संयम से सन्धि नहीं करते हैं, वे केवल अवस्था से वृद्ध हो सकते हैं, 'ज्ञान' और 'संयम' से नहीं । चारित्र में शिथिलता रखने वाले मनुष्य तिर्यक् योनि में पैदा होते हैं। उनका विचार है कि चारित्र और सौशील्य का संयोग पाकर साधारण ज्ञान भी पर्णता को प्राप्त कर लेता है, ठीक वैसे ही जैसे उत्तम शाणोपल का संयोग पाकर स्वर्ण का मूल्य इतना बढ़ जाता है कि वह सज्जनों के कण्ठ का अलंकार बन जाता है। इस प्रकार प्रथम खण्ड आचार्यश्री की संस्कृत एवं हिन्दी रूप उभयभाषाओं में लिखित मौलिक रचनाओं से मण्डित होकर साधकों के लिए ज्ञानालोक की वर्षा करता है और अज्ञान-अन्धकार को क्षीण करता हुआ नि:शेष कर सकता है। इस खण्ड के अन्त में मुद्रित शारदा-जिनवाणी के स्तवन हेतु बारह पद्य आपने 'शारदास्तुतिरियम्' (संस्कृत, १९७१) नाम से लिखे । बाद में इनका भावानुवाद हिन्दी में जनवरी, १९९१ में आचार्यश्री ने कर दिया है। 'समग्र : आचार्य विद्यासागर' (दो) खण्ड-दो में आचार्यश्री द्वारा अनूदित रचनाएँ संकलित हैं। इन रचनाओं में कुछ तो मूलत: संस्कृत में हैं और कुछ अपभ्रंश एवं प्राकृत में । सामान्य जिज्ञासुजनों के लिए ये भाषाएँ दुर्बोध हैं । एक तो गम्भीर विचार और दूसरे संस्कृत, अपभ्रंश एवं प्राकृत भाषा-इन दोहरे अवरोधों को पाकर ज्ञानामृत का पान करना कितना कठिन है, इस भावना से भरित होकर दयाशील और करुणार्द्र आचार्यश्री ने इन ग्रन्थों का हिन्दी रूपान्तरण कर दिया है । एतदर्थ हम सब उनके ऋणी हैं। जैन गीता (२८ अगस्त, १९७६) प्राकृत भाषा में निबद्ध ७५६ गाथाओं वाला 'समणसुत्तं' संज्ञक ग्रन्थ का यह अनूदित रूप है । इसमें चार खण्ड हैं। इसके प्रथम खण्ड ज्योतिर्मुख' में १५ सूत्रों (प्रकरणों) के अन्तर्गत गाथाएँ समाहित हैं-मंगल सूत्र, जिनशासन सूत्र, संघ सूत्र, निरूपण सूत्र, संसारचक्र सूत्र, कर्म सूत्र, मिथ्यात्व सूत्र, रागपरिहार सूत्र, धर्म सूत्र, संयम सूत्र, अपरिग्रह सूत्र, अहिंसा सूत्र, अप्रमाद सूत्र, शिक्षा सूत्र, आत्म सूत्र । द्वितीय खण्ड 'मोक्षमार्ग' में मोक्षमार्ग सूत्र, रत्नत्रय सूत्र (व्यवहार रत्नत्रय एवं निश्चय रत्नत्रय सूत्र), सम्यक्त्व सूत्र (व्यवहार और निश्चय सम्यक्त्व एवं सम्यग्दर्शन अंग), सम्यग्ज्ञान सूत्र, सम्यक् चारित्र सूत्र (व्यवहार एवं निश्चय चारित्र सूत्र एवं समन्वय सूत्र), साधना सूत्र, द्विविध धर्म सूत्र, श्रावक धर्म

Loading...

Page Navigation
1 ... 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648