Book Title: Mukmati Mimansa Part 03
Author(s): Prabhakar Machve, Rammurti Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 579
________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 491 मोक्ष है। इसी की शुद्ध-दशा में/अविनश्वर सुख होता है/जिसे प्राप्त होने के बाद,/यहाँ/संसार में आना कैसे सम्भव है तुम ही बताओ।" ('मूकमाटी', पृ. ४८६-४८७) दुग्ध से निकलने पर नवनीत पुन: दूध में नहीं जाता । तथा यह अनुभूति : “विश्वास को अनुभूति मिलेगी/अवश्य मिलेगी मगर/मार्ग में नहीं,/मंजिल पर !" ('मूकमाटी, पृ. ४८८) आचार्यश्री भी मार्ग-मंज़िल की बात स्पष्ट तौर पर कर रहे हैं। ऊपर जीवन-दर्शन के फ्रेम यानी ढाँचे में इनकी चर्चा आई है। इस प्रकार जीवन-दर्शन के बिन्दु तो स्पष्ट हैं। मंज़िल अर्थात् गन्तव्य का स्वरूप स्पष्ट हैं। सम्प्रति मार्ग की बात प्रक्रान्त है। आचार्यश्री की रचनाओं में जैन प्रस्थान की मान्यताएँ और सिद्धान्तों की रोचक प्रस्तुति हुई है। 'मूकमाटी' के 'मानस तरंग' में लेखक ने स्पष्ट कहा है : “ऐसे ही कुछ मूल-भूत सिद्धान्तों के उद्घाटन हेतु इस कृति का सृजन हुआ है।" प्रायः समस्त कृति में साधक घट को प्रतीक बनाकर जैन प्रस्थान का तप:साध्य मार्ग ही निरूपित हुआ है। 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि' का ज्वलन्त निदर्शन है तपोरत घट का प्रतीक । आचार्य श्री उमास्वामी ने कहा है : “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।" मोक्ष, जो गन्तव्य या मंज़िल है, तक ले जानेवाला मार्ग इन्हीं रत्नत्रय का एकान्वित रूप है । सम्यग्दर्शन साधक जीव का श्रद्धान है, उसके कारण ही ज्ञान में समीचीनता का आधान होता है और तभी आत्मस्वभाव और विभाव, स्व-पर का भेद समझ कर, जैसा कि आचार्यश्री ने कहा है, आत्मा अपने गुणों में रमण करती है। सम्यक् चारित्र यही है । सारा काव्य बताता है कि साधक किस तरह आत्मगत सांकर्य नष्ट करता है, पापप्रक्षालन करता है, उपसर्ग और परीषहों का मरणान्तक सामना करता है, आग जैसी परिस्थितियों में तपकर परिपक्व होता है, सत्पात्रता अर्जित करता है, श्रद्धाजल से आपूरित होकर श्री सद्गुरु के नेतृत्व में आत्मसमर्पण करता है-स्वयं और अपने अवलम्ब को विपत्ति सागर से पार उतारता है और स्वयं सन्तरण कर जाता है । मंज़िल तक पहुँचने में चौदह गुणस्थानों के सोपान पार करने पड़ते हैं। ग्रन्थ में उनमें से भी कुछ का उपलक्षण रूप में संकेत विद्यमान है । अन्तत: श्री सद्गुरु स्थानीय शिल्पी कुम्भकार भी उस अरिहन्त की ओर संकेत करता है जो उपदेश के अमृत की धारासार वृष्टि कर रहा है। जीवन-दर्शन का तीसरा बिन्दु है-मनन । इसके द्वारा स्वकीय मार्ग के प्रति आस्था के दृढ़ीकरण के लिए चिन्तन किया जाता है और परकीय विरोधी पक्षों का निरसन किया जाता है। उदाहरण के लिए 'मूकमाटी' में कार्य मात्र के प्रति केवल उपादान और निमित्त कारणों की चर्चा की गई है। जैन प्रस्थान मानता है कि सृष्टि अनादि है-उसके कर्तारूप में ईश्वर की कल्पना निरर्थक है। मानव मात्र में स्वयम् ईश्वरत्व पर्यवसायिनी सम्भावना है, प्रत्येक आत्मा में परमात्मा होने की सम्भावना है, परमात्मा जैसी अलग से कोई विशिष्ट सत्ता नहीं है । आचार्यश्री ने स्वाति के जल से मुक्ता के बनने में किसी कर्ता का अस्तित्व नहीं देखा है। जल स्वयम् उपादान है और विशिष्ट कक्ष में उसका आ जाना निमित्त है । कार्य और कर्ता का अविनाभाव सम्बन्ध होता, जो यहाँ भी लक्षित होता है। आचार्यश्री ने प्रसंगात् अनेक मान्यताओं की बात की है । परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी का उत्तम निरूपण भी 'मूकमाटी' (पृ. ४०१-४०४) ग्रन्थ में हुआ है । 'नियति' और 'पुरुषार्थ' के द्वन्द्व पर भी उनकी अपनी मान्यता इसी ग्रन्थ में (पृ. ३४९) व्यक्त हुई है। उनकी दृष्टि में 'अपने में लीन होना ही नियति है' तथा 'आत्मा को छोड़कर सब पदार्थों को विस्मृत करना ही पुरुषार्थ है'। जीव का स्वरूप इस प्रस्थान में न तो अणुरूप है और न ही विभु,

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