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मूकमाटी-मीमांसा :: 483
अन्तरतम की ज्योति जगाकर, निज स्वभाव में रम जाता है, सब विभाव फिर हटते रहते, साधन पथ पर रम जाता है। यह योगी की मूक साधना, अन्तरतम की बहती धारा; दिव्य दृष्टि और दिव्य दिशा को, नई चेतना देता रहता।
'मूकमाटी' को महाकाव्यमय, संयम पथ पर नित दे जाता, ज्ञान ज्योति की दीपशिखा को, विश्व शान्ति का पथ दे जाता। ज्यों-ज्यों मन्द कषायें होतीं, निरत साधना में रम जाता;
अन्तरतम की निरत साधना, योगी चेतनमय ढल जाता । जब योगी का धर्मध्यान औ शुक्लध्यान आता जाता है, जीवन उसका सही साधना-पथ तब पल-पल दर्शाता है। सूक्ष्म लोभ कुछ क्षण रह जाता, ध्यान अग्नि को स्वयं जलाता; यथाख्यात चारित्र धार वह, मोह क्षीण पथ पा जाता है ।।
निरत साधनारत रहता नित, शुक्लध्यान में रम जाता है, किंचित् योग साधना पर चल, केवलज्ञानी बन जाता है।
आयु कर्म जब तक रहता है, दें नित उपदेश दिव्य वाणी का;
दिव्यध्वनि में झरता रहता, दिव्य वाणी या मूक वाणी का । जब तक किचिंत् योग लगा है, वचन योग से वाणी देता, अपनी वाणी से हर दम ही, जीवों का दुख है हर लेता। आत्मज्योति या आत्मशिखा की, मूक चेतना देता रहता; 'मूकमाटी' को मूक व्यथा दे, महाकाव्य नित गढ़ता रहता।
अरहन्त सिद्ध की दिशा और वह, नित प्रति पग धरता रहता, सर्व साधु औ उपाध्याय पद, आचार्य पद पर मढ़ता रहता। इंगित आकारों की रचना, अपने पथ से नित प्रति देता;
जैन धर्म और जैन ध्वजा को, विश्व बन्धु में हर दम मढ़ता ॥ इन्द्रिय-विजय साधना-पथ है, राग-द्वेष नित हरता रहता, विद्याधर से 'विद्यासागर', पथ पर नित प्रति चलता रहता। ज्ञानकला की दिव्य शिखा पर, नई चेतना देता रहता; 'मूकमाटी' में निज भावों से, नये काव्य में मढ़ता रहता ॥
यह योगी की आत्म ज्योति है, जिसे जानता केवलज्ञानी, 'मोदी' की इस तुच्छ कलम में, क्या ताकत जो दे दे वाणी। यह तो मनुज प्रयास सफल हो, इसीलिए मढ़ता रहता हूँ; 'मोदी' मोद भरे इस पथ को, मूक व्यथा से ही कहता हूँ।