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132 :: मूकमाटी-मीमांसा
दो पंक्तियाँ कुम्भ के पीछे हैं/जो/परस्पर एक-दूसरे के आश्रित हो चल रही हैं/एक माँ की सन्तान-सी/तन निरे हैं
"एक जान-सी।” (पृ. १७८) चतुर्थ खण्ड कथा विस्तार से सम्पन्न है। रचनाकार की दार्शनिक चेतना मुखर हुई है। सन्त की निर्मल भावना अपनी पूर्णता पर व्यक्त हुई है। क्षुद्रता की उपेक्षा, निर्बलता का उपहास, स्व की रक्षा, आत्मविश्वास और पुण्यात्मा का शुभत्व, मंगल कामना का विस्तार, गुरु महिमा और आत्मोत्थान आदि बिन्दुओं का गम्भीर, विस्तृत विवेचन किया गया है। भारतीय संस्कृति के मूल स्वर का प्रतिपादन भी इसी क्रम में हुआ है :
"सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत् ॥" मनीषी रचनाकार ने विश्वास एवं आस्था को जीवन की सर्वोत्कृष्ट निधि मानी है :
"विश्वास को अनुभूति मिलेगी/अवश्य मिलेगी/मगर मार्ग में नहीं, मंजिल पर !/और/महा-मौन में/डूबते हुए सन्त"
और माहौल को/अनिमेष निहारती-सी/''मूकमाटी ।" (पृ. ४८८) 'मूकमाटी' काव्यकृति अपनी शिल्पगत विशेषताओं में भी अनुपम है । रस, गुण, अलंकार, छन्द तथा शब्दसामर्थ्य प्रभावशाली है। कहीं पर कोई रचना-आग्रह नहीं है । आधुनिक परिवेश में सरल, प्रचलित और सार्थक शब्दों का प्रयोग किया गया है । भक्ति रस, शान्त रस के मेघ सर्वत्र बरसे हैं जिनमें सहृदय स्नान कर मंगल घट से पूजाउपासना करने में तत्पर है । शृंगार को रूपक के माध्यम से रखकर जीवन के सौन्दर्य को उभारा गया है । कहीं भी अतिरंजना नहीं है । छन्द-प्रयोग सर्वथा नवीन है, प्रभावी, प्रवाहपूर्ण, आडम्बर या दुराग्रह से सर्वथा मुक्त है । यह सन्त की निर्मलता एवं हृदय की विनम्रता का प्रतीक है । उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, पुनरुक्ति अलंकारों के साथ अनुप्रास और यमक का प्रयोग भी प्रशंसनीय है । यदा-कदा भावाभिव्यक्ति में बल से पड़ते हैं, किन्तु यह स्वाभाविक रूप से हुआ है, यथा-"परस्पर और एक दूसरे" शब्द का प्रयोग - अभिव्यक्ति को गति ही प्रदान करता है । प्रकृति का कोमल चित्रांकन परिवेश के विस्तार को आकर्षक बनाता है । माटी, नदी, पर्वत, आकाश, पुष्प, वृक्ष, मधु एवं सरिता आदि का प्रयोग जहाँ एक ओर महाकाव्य की गरिमा को ऊर्जस्वित करता है वहीं रूपक प्रयोग को नवीनता प्रदान करता है। नाटकीयता मानवीकरण, औदार्य, संकलन-त्रय की भूमिका आदि काव्य-सौन्दर्य में अभिवृद्धि करते हैं । 'मूकमाटी' महाकाव्य अपनी गरिमा में बेजोड़ तथा मानवीय अनुभूतियों का दार्शनिक-सांस्कृतिक धरातल पर प्रामाणिक दस्तावेज़
पृष्ठ 3९९-३९० कला शब्दस्वयं कहरघ कि -...... एकही मतद, वस
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