Book Title: Mukmati Mimansa Part 03
Author(s): Prabhakar Machve, Rammurti Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 541
________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 455 ८. अनवरुद्ध जीवनी शक्ति और सशक्त प्राणवत्ता इनमें से अधिकांश तत्त्व जिन काव्यों में पाए जाते हैं उनको महाकाव्य मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए । यद्यपि परम्परागत परिभाषा के अनुकूल उच्च कुलोत्पन्न नायक प्रस्तुत काव्य में नहीं है, फिर भी पंचभूत, उनमें भी मूलभूत तत्त्व माटी के, जो मूल है, उन्नत अवस्था में पहुँचने की गाथा यह सुझाती है। मनुष्य, जो मूल पंचभूतों से निर्मित शरीरी है वह साधना, समर्पण, सेवा से अवश्य सम्माननीय हो सकता है। इस महती उद्देश्य का यह काव्य अवश्य आधुनिक महाकाव्य की कोटि में आ सकता है। मानस-तरंग' में उठाए गए प्रश्नों का उत्तर ढूँदें तो यह स्पष्ट पता चलता है कि निमित्त की अनिवार्यता ईश्वर की ओर हमारा ध्यान अवश्य आकृष्ट करती है। जो स्वयं जीवनमुक्त हैं, वे जीव को प्रेरणा देकर मुक्ति दिला सकते हैं। इस काव्य में मुक्ति का यह अर्थ ध्वनित होता है कि परोपकार के लिए निष्काम सेवा करना । दूसरे शब्दों में सृष्टि मूक चलती है। वह विज्ञापनबाज़ी, घोषणा या घटाटोप के बिना अपना काम करती जाती है। जो उसके प्रति आत्मसमर्पण करता है वही 'पद्मपत्रमिवाम्भसा' रहकर उद्धार कर लेता है। मानस-तरंग' के अन्त में स्वयं रचयिता ने 'मूकमाटी' काव्य के महत् उद्देश्य पर प्रकाश डाला है। 'सुसुप्त चैतन्य शक्ति को जागृत करना, शुद्ध चेतना की उपासना करना, शुद्ध सात्त्विक सम्बन्धित जीवन को धर्म के अनुरूप प्रतिष्ठित करना...,और वीतराग श्रमण-संस्कृति को जीवित रखना' आदि 'मूकमाटी' का उद्देश्य है । प्रस्तुत काव्य, पलायन को प्रोत्साहित नहीं करता, क्योंकि कष्ट को देखकर भागना कायरता का लक्षण है । अन्त में जब स्वयं अग्नि परीक्षा देने माटी तैयार होती है तब हमें भी प्रेरणा व प्रोत्साहन मिलता है कि कष्टमय जीवन की भयंकरता को हम खुद गले लगा लें तो अमर बन सकेंगे, नहीं तो कबीर की उक्ति को ही दुहराना पड़ेगा कि जो अपना सर काटकर उसे दबा सकते हैं वे ही कबीर के अनुयायी हो सकेंगे। आत्मदान, आत्मत्याग, अपूर्व साहस आदि ही मनुष्य को अमर बना सकेंगे। तीर्थंकरों के जीवन भी हमें यही सिखाते हैं कि जो अपने आपको पर' के लिए मिटा लेंगे, वे ही पूज्य होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यह काव्य ‘महती प्रेरणा' देने में सफल हुआ है । इस सिलसिले में विचारणीय यह होगा कि नदी के किनारे की कच्ची मिट्टी व मंगल कलश दोनों के आधार तत्त्व एक ही हैं। याद रखना चाहिए कि कच्ची मिट्टी मंगल कलश बन सकती है, यानी क्रमिक विकास से आत्मा अपना उद्धार कर सकती है। लेकिन मंगल कलश पतित होकर मिट्टी में मिल सकता है किन्तु कच्ची मिट्टी नहीं बन सकता । इसी प्रकार आत्मा भी अपना उद्धार व विकास कर सकती है। काव्य प्रतिभा की दृष्टि से विचार करें तो आचार्यश्री की प्रतिभा का मूल्यांकन करना सूरज को दीप दिखाने के बराबर होगा। अब विचारों के गुरुत्व, गाम्भीर्य व महत्त्व पर ज़रा विचार करें। 'मूकमाटी' काव्य का प्रारम्भ सुन्दर प्रकृति चित्रण से होता है । सीमातीत शून्य की नीलिमा व नीरवता के वर्णन के साथ अपने नाम के अनुरूप वातावरण में यह काव्य प्रारम्भ होता है : "निशा का अवसान हो रहा है/उषा की अब शान हो रही है।" (पृ. १) ये पंक्तियाँ सुझाती हैं रात का अँधेरा व अज्ञान मिट रहा है व उषा के उदय होते-होते धीरे-धीरे प्रकाश व ज्ञान फैलने लगा है । प्रस्तुत काव्य में भी ज्ञान की परतें एक-एक करके खुलती हैं तब विचारों की बारात निकलती है जो अवश्य सब को आकृष्ट करती है । प्रातः सन्ध्या के समय अपने प्यारे चन्द्र के साथ जब तारा बालाएँ धीरे-धीरे छिपती हैं तब वे दिवाकर की दृष्टि से अपने आपको बचा लेती हैं। हाँ, जब ज्ञान का सूर्य उदित होता है तब अल्पज्ञान के तारे व दूसरों

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