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'मूकमाटी': एक विवेचन
डॉ. पी. के. बालसुब्रह्मण्यन दक्षिण के सन्त भक्त त्यागराज की वाणी है : “जितने ही महानुभाव व सन्त इस विश्व में जन्मे हैं, उन सबके प्रति अपने श्रद्धासुमन समर्पित करता हूँ। उनकी वन्दना करता हूँ"-उक्त उद्धरण के साथ प्रस्तुत काव्य का विवेचन करना समीचीन होगा।
यशस्वी सन्त आचार्य विद्यासागरजी सचमुच विद्या के सागर हैं। रत्नाकर हैं । रत्नाकर के गर्भ में अमूल्य रत्न व मोती भरे पड़े हैं। जो पारखी हैं, उसे गोता लगाकर, गहरे पानी में पैठकर और कठिन व अगाध परिश्रम करके उन रत्नों को बाहर लाना पड़ता है । जो व्यापारी है वह दूसरों के हाथ बेचने के लिए रत्न निकालता है । परन्तु जो ज्ञानी है वह विद्यासागर के रत्नों व मोतियों का भोग स्वयं करता है और दूसरों को देता है । प्रस्तुत ग्रन्थ 'मूकमाटी' का गम्भीर अध्ययन व मनन-चिन्तन के बाद यह प्रतीत होता है कि प्रस्तुत काव्य विश्लेषण या विवेचन से परे रहकर ज्ञानार्जन की दृष्टि से पठनीय है, मननीय है।
नाम से ही स्पष्ट है कि माटी मूक है । हाँ, जो साधक है, जो सेवक है वह बोलना नहीं जानता, लेकिन मूक सेवा करना जानता है । वह भी निष्काम सेवक है, परोपकारी व परमार्थी है । संक्षेप में, इस काव्य का सार यही है कि नदी के किनारे जो माटी है वह माटी पृथ्वी का उपदेश व मार्गदर्शन पाकर कुम्भकार की प्रतीक्षा करती है, उसके हाथों में अपने आपका समर्पण करती है, बोरे में भरकर कुम्भकार की तपोभूमि पर पहुँचती है, उसके पैरों के नीचे रौंदी जाकर, शुद्ध होकर, पवित्र, निष्कण्टक व निष्कंकड़ होकर मुलायम बनती है। कुम्भ पर चढ़कर घड़े का रूप पाती है, अपनी इच्छा से अग्नि परीक्षा देती है, पक्का घड़ा बनती है, सेठजी के द्वारा रंगीन होकर मंगल कलश बनती है, नदी पार करते समय सम्पूर्ण परिवार की रक्षा करके मंगल करती है और अन्त में स्व-स्थान या अपनी जन्मभूमि नदी के तट पर पहुँचती है तो धरती माता उसकी उन्नति, मान-हारिणी प्रणति देखकर प्रसन्नता प्रकट करती है। समर्पण, कष्ट सहन व सेवा भावना ने माटी का उद्धार किया था।
'मूकमाटी' ग्रन्थ समुद्र के समान आकार से बड़ा है। अगर सिर्फ़ महाकाव्य की दृष्टि से इस पर विवेचन करें तो यह कहना है कि जितना आकार से यह काव्य महान् है, उससे अधिक विचार से महान् काव्य है । महानों की कृतियाँ क्यों महान् नहीं होगी? .
महाकाव्य की परिभाषा में विभिन्न युगों और विभिन्न देशों के, विभिन्न शैलियों के महाकाव्यों में प्राप्त स्थायी लक्षणों का समावेश हो गया है। 'हिन्दी साहित्य कोश' (पृ. ३२७) के अनुसार उन्हें मोटे तौर पर निम्नलिखित अवयवों के स्वरूप में विभाजित करके उपस्थित किया जा सकता है :
१. महत् उद्देश्य, महत्प्रेरणा और महती काव्य-प्रतिभा २. गुरुत्व, गाम्भीर्य और महत्त्व ३. महाकार्य और युगजीवन का समग्र चित्रण ४. सुसंघटित जीवन्त कथानक ५. महत्त्वपूर्ण नायक तथा अन्य पात्र ६. गरिमामयी उदात्त शैली ७. तीव्र प्रतिभान्विति और गम्भीर रस व्यंजना